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________________ रत्नाकर शतक -आन्तरप्रान्तीय योगदान की राष्ट्रीय निधि समीक्षक : डॉ रमेशचन्द्र मिश्र सोलहवीं शती के कन्नड़ कवि रत्नाकर वर्णी कृत 'रत्नाकराधीश्वर' अथवा 'रत्नाकर शतक' का अध्ययन तो दूर, परिचय प्राप्त करना मुझ जैसे हिन्दी भाषी प्राध्यापक के लिए दुस्तर ही था, यदि आचार्य देशभूषण जी जैसे संस्कृति-भाषा-विषयक समन्वयी चेतना वाले विद्वान् मनीषी इस रचना का सम्पादन और उसकी व्याख्या प्रस्तुत न करते। वास्तव में भारतीय भाषाओं के ग्रंथ रत्नों को हिन्दी भाषी अपार जनसमाज तक लाना राष्ट्रीय महत्त्व का कार्य है। ऐसा करने से दो महत् सिद्ध होते हैं- १. साहित्यिक-सांस्कृतिक-दार्शनिक विरासत को अग्रसारित करने का, और २. भाषा-क्षमता के आधार पर राष्ट्रीय एकता को सुगुंफित करते हुए जनमानस को संस्कारित करते जाने का। सभी प्रकार की समन्वित चेतना को प्रबुद्ध करने में भाषा का प्रमुख हाथ रहता है । भारत के सन्दर्भ में हिन्दी या हिन्दुस्तानी भाषा शताब्दियों से राष्ट्रीय एकता की प्रतीक रही है। क्योंकि हिन्दी भाषा-क्षेत्र शताब्दियों से राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अनेक वैचारिक दबावों को सहन करता आया है। इसी विस्तृत भूभाग में मौर्य, शुंग, गुप्त. मुगल, पठान आदि साम्राज्यों का उत्थान-पतन हुआ है; आक्रमण, युद्ध झेले हैं। प्रसिद्ध हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख, इस्लाम, ईसाई तीर्थ-स्थल इसी प्रदेश में हैं। अत: यह क्षेत्र दीर्घकाल से जनचेतना को आकर्षित करने का चुम्बकीय कार्य करता रहा है। परिणामतः इस क्षेत्र में संकीर्ण प्रान्तीयता नहीं पनप सकी है। इस क्षेत्र की जनभाषा होने के कारण ही हिन्दी में अद्भुत समन्वयकारी क्षमता अन्तर्निहित है । साथ ही, आध्यात्मिक चेतना के विकास में भी इस क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। काल क्रम में यह चेतना पहले संस्कृत, पुनः प्राकृत और अपभ्रश में अभिव्यक्त होती हुई हिन्दी और उसकी उपभाषाओं में आई है। जनमानस तक पहुंचने में भाषा ही सबसे बड़ा माध्यम है। यह भाषा स्थानीय बोलियों से जीवनी-शक्ति लेती हुई उपभाषा, प्रान्तीय भाषा के सोपानों पर अग्रसर होकर सार्वदेशिक भाषा के रूप में स्वीकृति पाती है। अत: मातृभाषा, प्रदेश भाषा और देशभाषा यह एक स्थितिजन्य क्रम है। यह क्रम सर्वजनोन्मुखी होकर काल क्रम में आगे बढ़ता है । जनोन्मुखी होने का यह क्रम संस्कृत से प्राकृत में, प्राकृत से अपभ्रश में आधुनिक भारतीय भाषाओं में देखने को मिलता है। एक विद्वान् का अभिमत है कि भारत ऐसा सांस्कृतिक देश है, जिसकी जड़ अध्यात्म है । यह अध्यात्म हमारी संस्कृति के उस वृक्ष की भांति है जो समूचे राष्ट्र को अपनी मूलवत्ता एवं सघन छाया में परिवेष्ठित किए हुए है। वृक्ष के अंग-प्रत्यंग की विभिन्नता के बावजूद राष्ट्रीय अखंडता एवं उसकी समन्वित सत्ता का सारा दायित्व संस्कृति की पीठिका पर निर्भर है। संस्कृति के इस गुरुतर दायित्व को क्षेत्रीय-प्रान्तीय भाषाओं के सहयोग से हिन्दी ही निभा सकती है, कोई विदेशी भाषा नहीं। वास्तव में हिंदी में चिन्तन-व्यवहार के जीवन्त तत्त्व युगों से संवाहित होते रहे हैं। हम देखते हैं कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश के ये सोपान मनीषी ऋषि, जैन, बौद्ध चिन्तन को आधुनिक युग तक किस प्रकार उत्कर्ष प्रदान करते रहे हैं। मध्य देश की शौरसैनी अपभ्रश तो आठवीं से तेरहवीं शती तक उत्तर भारत की साहित्यिक और सांस्कृतिक विनिमय की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही है । संस्कृत विद्वान् भी जनसमुदाय तक पहुंचने के लिए इसे आवश्यक मानते आये हैं। मागधी, महाराष्ट्री अपभ्रश भी उसी विकास क्रम में आती हैं। हिन्दी उसी विकास क्रम के उत्तराधिकार से पुष्ट है। आचार्य देशभूषण जी ने भाषा विकास क्रम एवं उसकी अमोघ क्षमता को भली प्रकार समझा है और अनुभव किया है कि आज के युग में अध्यात्म चिन्तन का ज्ञान और उसका सार जनसुलभ बनाने के लिए हिन्दी को माध्यम रूप में अपनाना अपेक्षित ही नहीं अपरिहार्य है। मुनि परम्परा के धर्मध्वज आचार्य श्री देशभूषण जी अनासक्त होते हुए भी लोककल्याण की भावना से प्रेरित हैं। उनकी मान्यता है कि आज लोकरुचि भोगाकांक्षी एवं द्रव्यदासी बनी हुई है। ऐसी मानसिकता के दबाव में व्यक्ति कैसे शाश्वत शान्ति, अमर जीवन और आनन्दभाव की प्राप्ति या परिचय प्राप्त कर सकता है। ऐसी मानसिकता को शम-वाणी, यम-वाणी जैसी लगती है। किन्तु आचार्य देशभूषण जी ने ऐसे सामाजिक वातावरण में भी अपने अमृतमय संकल्प को न छोड़कर जीवन के पवित्र पक्ष-योग, ब्रह्मचर्य, तप, स्वाध्याय, निर्वैरता, त्याग एवं दिगम्बर चेतना को धारण करके, अहिंसा के प्रकाश को मन, वाणी और कर्म से फैलाते हुए समस्त भारत में पैदल बिहार करते हुए जीवन३४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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