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के सामने नृत्य करती हुई प्रस्तुत होती हैं। यहां एक उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा - "दर्शन सहित निःशंकित अंग को धारण करने वाला मनुष्य उसी प्रकार शोभा को पाता है, जैसे मंगलवेष में सजा हुआ दूल्हा, जैसे आँखों में कज्जल की रेखा, पांवों में पेंजनी, कूटने से जिसक ऊपर का छिलका उड़ गया है ऐसा धान्य, अश्व पर सवार जैसे सुन्दर युवक, जैसे विवाहोत्सव का मंगलमय घर, शूरवीर की मूंछों की बाँकी मरोड़, चावल की मुट्ठी के समान, तेजधार परशु के समान, जुती हुई सुन्दर बैलगाड़ी के समान, तोरण से शोभायमान घर के द्वार के समान, दोनों ओर कंधे पर झूलती हुई कावड़ के समान, दंतधावन से निर्मल हुए दांतों के समान, निःशंकित अंग को धारण करने वाला मनुष्य शोभा देता है।" (धर्मामृत प्र० भा०, पृष्ठ २०२ ) कितने व्यापक और विस्तृत क्षेत्र से अथवा यों कहिए कि लोकजीवन के विशाल प्रांगण से बटोरकर ललित उपमाओं को एक-साथ प्रस्तुत करने में कवि नयसेन अप्रतिम रूप से सफल हुए हैं। संस्कृत के कवि बाण भट्ट भी इसी प्रकार की उपमाएँ संजोते थे।
नयसेन की कन्नड़ भाषा की गौरव कृति 'धर्मामृत' का आचार्य रत्न श्री १०८ देशभूषण जी महाराज द्वारा यह हिन्दी अनुवाद अपने आप में एक सुललित कृति बन जाता है । कन्नड़ भाषा से हिन्दी में अनुवाद करने से इस रचना के महत्त्व का तो पता चलता ही है, साथ ही आषार्यरत्न द्वारा की गई स्वाच्या भाव और टिप्पणियों में अनुवादक के पाण्डित्य गम्भीर ज्ञान-गरिमा अध्ययन-प्रवृत्ति और धर्मनिष्ठा का भी अनुमान लगाया जा सकता है । इस अनुवाद की भाषा ललित और सरस है, अतः पाठक और विशेष रूप से जैन धर्मानुयायियों के लिए सुग्राह्य है । इस रचना का अनुवाद करके आचार्य रत्न ने हिन्दी भाषा और जैन समुदाय को तो उपकृत किया ही है, साथ ही उत्तर और दक्षिण भारत की सांस्कृतिक चेतना की मूलभूत एकता को भी रेखांकित किया है। इस प्रकार के अनुवाद राष्ट्रीय एकता को समृद्ध करने की दिशा में भी ठोस कदम कहे जा सकते हैं ।
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