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यापन की महती साधना का अनवरत अनथक व्रत सन्धान किया है, कर रहे हैं। आपके जीवन संकल्पों में एक यह भी है कि भारत की
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अध्यात्म चेतना लोकमंगलकारी है, जिसका प्रचार-प्रसार आज जनहित में परमावश्यक है। अनन्तकाल से मनीषी रचनाकारों ने जो अमृतवाणी प्रदान की है, वह आज की वेदनामयी करुण परिस्थिति में क्लिष्ट और दुष्टबुद्धि का परिष्कार करने में संवेदना-बुद्धि जागृत करने में सहायक हो सकती है । इस महत् कार्य सम्पादन में किसी भाषा विशेष का आग्रह न होने पर भी, संस्कृत-प्राकृत अपभ्रंश के स्रोतों से जुड़ती हुई, अनेक ऋषि-मनीषी रचनाकारों के समान ही जैन रचनाकारों ने कनड़ी, तमिल, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, ब्रज आदि में अपनी चेतना की निर्मल गंगा प्रवाहित की है। इस विकल्प को- - कि लोक भाषाओं या क्षेत्रीय भाषाओं में उच्च साहित्य-सृजन की क्षमता क्षीण है, आचार्य देशभूषण जी का निष्कर्ष है कि शताब्दियों से जंनाचायों ने गम्भीर विषयों पर लोकभावाओं और प्रान्तीय भाषाओं में मौलिक और उच्चकोटि का साहित्य सृजन किया है। उदाहरण के लिए कन्नड़ भाषा के तो अधिकांश कवि प्रायः जैन विचारधारा के ही अनुयायी रहे हैं । पोन्ना, रन्न, रत्नाकर, अन्न, पम्प, नयसेन, नागचन्द्र, अग्गल, साल्व आदि रचनाकारों ने कन्नड़ साहित्य की श्री वृद्धि की है ।
तपस्वी जीवन के अग्रेता आचार्य देशभूषण जी मुनि परम्परा के संवाहक होने के साथ ही मनीषी चिन्तक एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार भी हैं। आपका संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी, मराठी और हिन्दी भाषा पर अधिकार है। अपने जीवन के अधिकांश समय को आप शास्त्ररचना में लगाते रहे हैं । आपके द्वारा रचित, अनूदित, सम्पादित लगभग ७० ग्रन्थ हैं। इनमें प्रमुख हैं- भूवलय, भावनासार, शास्त्रसार समुच्चय, रत्नाकर शतक ( प्रथम द्वितीय भाग), निर्वाण लक्ष्मीपति स्तुति, चौदह गुणस्थान चर्चा, धर्मामृतसार ( प्रभाचन्द्राचार्यकृत, यह रचना हिन्दी और मराठी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है), ध्यान सूत्राणि, अपराजितेश्वर शतक (प्रथम-द्वितीय भाग), श्रेष्ठ शलाकापुरुष, उपदेशसार संग्रह (१-६ भाग तक) निरंजन स्तुति, गुरु शिष्य प्रश्नोत्तरी गुरु शिष्य संवाद णमोकार मन्त्र कल्प, तत्यदर्शन, स्तोत्रसार संग्रह, भरतेश वैभव भाग १, ( खण्ड १-२-३ ) भाग २, दश लक्षण धर्म, आत्मरस मंजरी, भक्ति स्तोत्र संग्रह ( भाग १-२ ), प्रवचनसार ( कनड़ी और मराठी अनुवाद), समयसार प्रवचन (अध्याय पांच तक मराठी में ), भरतेश वैभव ( गुजराती में ), धर्मामृत ( नयसेनाचार्य कृत, १-२ ) जय भगवद् गीता, त्रिकालदर्शी महापुरुष, भगवान् महावीर और उनका समय, भगवान महावीर और मानवता का विकास, तात्विक विचार, जैनधर्म का मर्म अहिसा योगामृत
वास्तव में आचार्य देशभूषण जी ने अपना जीवन धर्म-दर्शन एवं साहित्य-संस्कृति को सहर्ष समर्पित किया हुआ है। और इस अर्थ में आपका साहित्यिक ऐतिहासिक योगदान भी उल्लेखनीय है। आप प्राचीन भारतीय साहित्य के गम्भीर अध्येता रहे हैं। भारतीय साहित्य के चिन्तन तत्त्वों को, बहुमूल्य निष्कर्षों को जन-जन तक पहुंचाना आपने अपने जीवन का ध्येय बनाया है। सच तो यह है कि भविष्यद्रष्टा अनासक्त कर्मयोगी ने राष्ट्र की अमृतमयी एकान्वित चेतना को अग्रसारित करते हुए दक्षिण और उत्तर के रागात्मक सम्बन्धों को विकसित करने के लिए ही विभिन्न भारतीय भाषाओं संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, तामिल, कन्नड़, बंगला और गुजराती आदि की भक्तिमयी चेतना को राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रस्तुत करने का महनीय कार्य सम्पादित किया है। आपकी सतत साहित्य-साधना के कारण ही अनेक मनीषी रचनाकारों की अज्ञात, अल्पज्ञात एवं महत्त्वपूर्ण रचनाएं हिन्दी में प्रकाशित हो सकी हैं। आप उन युगप्रमुख साहित्यसेवियों में हैं, जिन्होंने धर्म रक्षा एवं धर्म साहित्य के अभ्युदय को संस्कृति की धुरी माना है। इसलिए अपने तन-मन से जीवन में विहार करते हुए अध्यात्म चेतना का सार एवं राष्ट्रीय चेतना को सम्बल प्रदान किया है। और ऐसा करने के लिए आपने भारत के विभिन्न प्रदेशों की बहुशः पद यात्रा तो की ही है अनेक प्रान्तीय भाषाओं को समझा-पढ़ा और दक्षता प्राप्त करके प्रदेशों की सरस्वती-सरिताओं को एक-दूसरे से जोड़ते हुए हिन्दी के माध्यम से आदान-प्रदान रूप पुल बनाया है, विच्छिन्न कवियों को जोड़ा है। ऐसा करते हुए आपकी वाणी की अमोघ शक्ति एक ओर तो ज्ञान-विवेक एवं शान्तिआनन्द का अखण्ड द्वार अनावृत करती है, तो दूसरी ओर भारतीय चिन्तन पद्धति की सार्वभौम क्षमता व संस्कृति के अमृतसर में सात्विक चेतना को निमज्जित कराने में समर्थ है। आप विगत ५५-६० वर्षों से निरन्तर निर्ग्रन्थ भगीरथ बने रहकर दक्षिण की गंगा को उत्तर में लाते रहे हैं ।
आचार्य देशभूषण जी ने रत्नाकर वर्णी कवि कृत 'रत्नाकर शतक' का सम्पादन एवं व्याख्या आदि की है जो अनुवाद कला की दृष्टि से 'महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति है। अनुवाद कार्य में जहां अनुवादक अथवा टीकाकार का मुख्य लक्ष्य रहता है कि मूल में निहित सौन्दर्य अर्थ की बेतना न केवल ध्वस्त न हो, अपितु, उसकी आत्मा बखूबी अभिव्यक्त हो, प्रभविष्णु बनकर रूपायित हो। इसके लिए अनुवादक को, व्याख्याकार को निरन्तर सावधान होकर केन्द्रोन्मुख बने रहना पड़ता है। यह कार्य वह तभी कर सकता है, जब वह अनुवाद- कला - व्याख्या सामर्थ्य से सम्पन्न हो और मूलकृति का रसास्वादन करके आत्मसात् कर सके। मूलभाषा में प्रवेश की दक्षता इस कार्य में उसको निरन्तर सहयोग देती है । ऐसा होने पर ही उसकी वाहिका भाषा मूलकृति की भांति ही चित्त रमाने में सक्षम हो पाती है । इस दृष्टि से जब हम आचार्य देशभूषण जी की भाषा क्षमता एवं विषयाधिकार को देखते हैं तो पढ़ते ही अनुभव होने लगता है कि उन्हें मूल अर्थात् कन्नड़ एवं टीका - व्याख्या की भाषा अर्थात् हिन्दी दोनों की प्रकृति और उनके बोलने वालों के मुहावरे से पूर्ण परिचय है। एक उनकी मातृभाषा है तो दूसरी उनकी विचाराभिव्यक्ति की भाषा विगत लगभग पचास वर्षों से रही है। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि जब छन्दोबद्ध रचना की टीका या व्याख्या करनी होती है और
सृजन-संकल्प
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