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________________ भगवान् महावीर और उनका तत्त्व-दर्शन समीक्षक : प्रो० सुरेशचन्द्र गुप्त I विश्व साहित्य की परम्परा में वाङ् मय के दो रूप स्पष्ट दिखायी देते हैं - पहला धार्मिक साहित्य के रूप में तथा दूसरा शुद्ध साहित्य के रूप में संसार की विभिन्न जातियों की धार्मिक आस्थाओं हिन्दुओं को मान्य वैदिक धर्म, इस्लाम, ईसाई मत, बौद्ध धर्म, जैन-दर्शन इत्यादि को समझने-समझाने के लिए अंग्रेजी, हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में प्रचुर सामग्री विद्यमान है। अंततः दोनों ही प्रकार के साहित्य का लक्ष्य मानवोत्थान ही होता है। फिर भी, प्रश्न हो सकता है कि आखिर धर्मविषयक रचनाओं की प्रासंगिकता क्या होती है और ऐसी रचनाएँ अपेक्षित होती हैं। उत्तर सीधा किसी विशिष्ट जनसमुदाय की एकता को बनाए रखने के लिए ऐसी रचनाओं का जन्म होता है और इसी में इनकी सार्थकता है। प्रायः अपने-अपने धर्म - समुदाय के अन्तर्गत ऐसे लेखन का महत्त्व इतना अधिक है कि इस विषय में जितना भी कहा या सोचा जाए कम ही होगा धर्म-सम्प्रदाय विशेष के निरन्तर विकास और विस्तार के लिए ऐसी रचनाएं एक प्रकार के शोधक का कार्य करती हैं। स्वयं को धर्म के संदर्भ में, समझने-परखने के लिए भी ऐसे साहित्य की सार्थक भूमिका रहती है। नए मूल्यों की स्थापना का कार्य भी समय-समय पर धार्मिक साहित्य ही करता है। इसी संदर्भ में यह भी स्पष्ट है कि ऐसे साहित्य के माध्यम से विभिन्न धर्म अपना-अपना मूल्यांकन भी करते रहते हैं। निश्चय ही यह मूल्यांकन मूल्यों की स्थापना के संदर्भ में ही होता है। समय-समय पर मूल्यों के ह्रास के कारण उत्पन्न परिस्थितियों को सही दिशा देने के लिए भी ऐसे साहित्य की आवश्यकता होती है। मानव मूल्यों को, किसी भी युग में, पोषित करने -महावीरचरित एवं जैन दर्शनका विश्वकोश - धार्मिक साहित्य के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। यही साहित्य, वास्तव में, हमें हमारे होने का अहसास कराकर जीवन जीने के लिए त्याग, तप, कर्म और मानव-प्रेम की पवित्र संकल्पना से हमें परिचित कराता है। विभिन्न प्रकार की नैतिक तथा आध्यात्मिक मान्यताओं के सन्दर्भ में भी तुलनात्मक अनुसंधान को सही दिशा देने का कार्य ऐसा साहित्य ही करता है। देश-काल से जुड़ी नैतिक एवं आध्यात्मिक मान्यताएँ समय के सन्दर्भों में कितनी खरी उतरती हैं, इस बात का परिचय भी हमें ऐसे ही साहित्य से मिलता है। नैतिकता और अनैतिकता का प्रश्न जब-जब आड़े आता है, तो हमें धार्मिक साहित्य की शरण में जाना पड़ता है। भारतीय संस्कृति की धरोहर के रूप में 'रामायण', 'महाभारत', 'श्रीमद्भगवद्गीता' इत्यादि धर्म-ग्रन्थ इसी परम्परा के अंग हैं जैन धर्म-ग्रन्थों में उपलब्ध सामग्री भी इसी कड़ी में मानवोत्थान के लक्ष्य पर बल देती रही है। ऐसे धर्म-ग्रन्थ अन्ततः हमारे जीवन से इतनी निकटता के साथ जुड़ जाते हैं कि उनका अनुशीलन हमारी जीवनयात्रा का अनिवार्य अंग बन जाता है । Jain Education International धार्मिक साहित्य और शुद्ध साहित्य के अपने-अपने गुण होते हैं। दोनों ही रिक्तता की स्थिति में अपना प्रभाव दिखाते हैं। फिर भी, देखा यही गया है कि शुद्ध साहित्य से जुड़े रचनाकार यदा-कदा ही धार्मिक साहित्य की रचना के प्रति उदार होते हैं । धर्म से जुड़े मूल्यों में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए भी वे अपने लेखन में उसके प्रति निरपेक्ष दिखायी देते हैं। धार्मिक साहित्य में प्रवचन - मूलकता के कारण कहीं तो अनावश्यक विस्तार की प्रवृत्ति आ जाती है और कहीं पुनरावृत्ति का तत्त्व प्रधान रहता है। इसे धार्मिक साहित्य की आवश्यकता भी माना जा सकता है, क्योंकि बार-बार कहने से कथन - विशेष का प्रभाव लम्बे समय तक स्थिर रहता है तथा समर्पण का भाव भी जाग्रत हो जाता है । आख्यानबहुलता भी धार्मिक साहित्य से जुड़ी होती है। विभिन्न आख्यानों के माध्यम से सत्य की खोज का प्रयत्न किया जाता है और मुक्ति की राह दिखाने की चेष्टा की जाती है। यह भी उल्लेखनीय है कि विभिन्न धर्मों के साहित्य के अन्तर्गत उपलब्ध आख्यान - नाम, देश, काल आदि के थोड़े-बहुत फेर-बदल के साथ- - प्रायः एक-से ही लक्षित होते हैं। ईश्वर के विभिन्न रूप विभिन्न धर्मों के माध्यम से प्रस्तुत तो होते हैं, किन्तु एक ज्योति अथवा एक शक्ति में ही सबका विश्वास रहता है। फिर मानव के हित की बात तो सभी धर्म एक-सी ही करते हैं। प्रत्येक धर्म के साहित्य में मानव हित का यही स्वर गुंजायमान रहता है। साहित्य एवं धर्म दोनों ही में अनुभूति का तत्त्व प्रधान होता है । कहीं निजी अनुभव की ही व्याप्ति रहती है, तो कहीं निजी भाव के ताल-मेल से रचना को पोषित किया जाता है। कला के माध्यम से ऐसी रचनाएँ अपनी गहरी छाप छोड़ती हैं। रचनाकार इनमें विवेकशील रहकर बार-बार तर्क और तुलना से अपनी भावना को प्रस्तुत करता है । सुजन-संकल्प १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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