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________________ भी सन्देह नहीं कि जो श्रावक और मुमुक्षु आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी विरचित विपुल ग्रन्थ-राशि और उपदेश-सन्देश की असंख्य मुक्तावलियों में से किन्हीं दो-चार को भी अपने हृदय-प्रदेश में स्थान देगा वह मानव से अतिमानव और नर से नारायण की कल्पना का स्वयं ही साकार उपमान बन जाएगा। __ आचार्य श्री ने जो कुछ भी लिखा है या कहा है उसमें जैन धर्म के सन्दर्भ में अभिव्यक्त होने पर भी धार्मिक या साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं आ पायी। उनकी वाणी मानव-कल्याण के लिए है, किसी विशिष्ट समुदाय या जाति मात्र के लिए नहीं । महापुरुषों का चिन्तन पूर्वाग्रहों से प्रेरित नहीं होता। उनका सन्देश काल और भूगोल की परिधि का अतिक्रमण कर सार्वकालिक और सार्वदेशिक मानव-मूल्यों को रूपायित करता है। इसी कारण आचार्य श्री की सारस्वत साधना में मानव के उदात्तीकरण और उसे परम सिद्ध अवस्था की ओर संचरण करने को प्रेरित करने की संकल्प शक्ति है। रामायण, महाभारत, बाइबिल, कुरान, जैन धर्म-कृतियों, अन्य आर्ष ग्रन्थों अथवा देशविदेश के अनेक साधु-महात्माओं, दार्शनिकों, चिन्तकों के कथन का जो भी अंश उन्हें मानव के ऊर्ध्वमुखी विकास के लिए सहायक प्रतीत हुआ है उसे उन्होंने उन्मुक्त भाव से अपनी वाणी का अंग बना कर प्रकाशित किया है। संभवतया साहित्य के सुधी पाठकों और समालोचकों ने आचार्य श्री के साहित्य का परिशीलन इस दृष्टि से अभी नहीं किया। धार्मिक साहित्य मानकर इसे शायद वे अधिक महत्त्व नहीं दे पाये, किन्तु इस मौलिक, अनुदित और प्रेरित विशाल ग्रन्थ-राशि में शाश्वत जीवन-मूल्यों की जो सहज व्याप्ति है, उसे जन-जन के लिए उजागर करता परम आवश्यक है । सन्तों ने निस्पृह भाव से जो लिख दिया उसमें लोकेषणा नहीं होती, किन्तु कला-मर्मज्ञों का यह दायित्व हो जाता है कि उन उदात्त बिन्दुओं की ओर समाज की चेतना को संवेदनशील बनायें। और यह तभी हो सकेगा जब सुधी समीक्षक आचार्य श्री की कृतियों का मनन कर उनका निष्पक्ष मूल्यांकन करेंगे। इनमें से अनेक कृतियों की सुगठित संरचनात्मक परिकल्पना, कथात्मक परिदृश्यों की चयन-छटा तथा भाषा की सहज और अनगढ़ प्रस्तुति भारतीय वाङमय में अभतपूर्व है। इनकी प्रबन्धात्मक कृतियों के चरितनायक और उनका कथात्मक सगुम्फन मात्र मनोरंजन के लिए नहीं है, उसमें आत्म-विकास के दिशा संकेत हैं और तत्कालीन-समाज की विचार-दृष्टि, मनोदशा और जीवन मूल्यों को समझने में उनसे सहायता मिलती है। मराठी, कन्नड़, गुजराती आदि भाषाओं के धार्मिक साहित्य को देवनागरी हिन्दी में रूपातरित और व्याख्यायित करके आचार्य श्री ने भाषा-विवाद के समाधान का प्रयास करते हए भारत की एकात्मकता को बल प्रदान किया है। जन शास्त्र-भण्डारों में अभी भी असंख्य हस्तलिखित अथवा प्रकाशित--किन्तु सामान्यतया अनुपलब्ध ग्रन्थ बिखरे पड़े हैं, जिनमें अपूर्व भाव-सम्पदा सन्निहित है । उन ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का हर सम्भव प्रयास जैन समाज और सम्पन्न श्रावकों को करना चाहिए। ऐसे सद्ग्रन्थों को प्रकाश में लाकर देवनागरी हिन्दी को समद्ध करना और कोटि-कोटि मानवों के कल्याण-पथ को प्रशस्त करना ही आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज का वास्तविक अभिनन्दन है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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