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________________ परमाणु बम के आविष्कार की सब देशों में होड़ लग रही है । सब ओर अविश्वास और दुर्भाग्य चक्कर काट रहे हैं । अस्तु आवश्यकता है आज फिर जैन-संस्कृति के जैन तीर्थंकरों के भगवान महावीर के जैनाचायों के 'अहिंसा परमोधर्मः' की मानव जाति के स्थायी सुखों के स्वप्नों को एक साथ अहिंसा ही पूर्ण कर सकती है । इस संसार रूपी गहरे से निकाल कर परमोन्नत सुख-शान्ति के शिखर पर पहुंचाने वाली मशीनरी के समान कार्य 'करने वाला सच्चा साधन रूप सिद्ध परमात्मा ही हम सभी मानवों के लिए आदर्श है । यह सिद्ध पद शुद्धात्मा का पद है जहां आत्मा अपने ही निज स्वभाव में सदा मग्न रहती है। आत्मा प्रकाश के समान परम निर्मल है और आत्म-द्रव्य गुणों का अभेद समूह है। वहां पर सर्वगुण पूर्ण रूप से प्रकाशित होते रहते हैं। सिद्ध भगवान् पूर्ण ज्ञानी, परम वीतरागी, अतीन्द्रिय सुख के सागर, अनन्तशक्तिशाली अर्थात् अनन्त वीर्य के धारी हैं । प्रभु स्वयं अनन्त सुख के धारक हैं। जो उनको ध्येय मानकर उनकी उपासना करते, उनका ध्यान व स्मरण करते हैं, 'उनको कोई पाप छू नहीं पाता । उनके सब पातक दूर भाग जाते हैं । संसारी मानव की आत्मा इन्द्रिय के भोगों में फंसकर अनेक भांति के दुःख उठा रही है। इसकी दशा चूहे के समान हो रही है जो निरन्तर प्रातः से सायं तक लगातार अन्न के दानों के संग्रह में ही लगा रहता है । उसे तो रुपया-पैसा कमाने की धुन सवार रहती है। न्याय, अन्याय, कर्तव्य, अकर्तव्य, भक्ष्य, अभक्ष्य, हित, अहित, भलाई, बुराई, नीच, ऊँच, व्यवहार आदि का कोई विचार नहीं रहता। ऐसी स्थिति में आत्मस्वरूप के विचार के लिए तो उसे समय ही नहीं मिलता। तब बताइये आत्म-कल्याण हो तो कैसे हो ? वह धन कमाने में सारा जीवन लगा देते हैं और मरते समय जो कुछ कमा कर छोड़ जाते हैं वह उनके साथ नहीं जाता । अतः जो मानव सुखी होना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे अपने इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को धर्म कार्यों में लगाकर सफल करें। धर्म ही आत्मा का रक्षक है, अन्य कोई नहीं । यह शरीर समय-समय पर निर्बल और सबल, निरोग और सरोग, सुरूप और कुरूप होता रहता है । साथ ही साथ किसी रोगादिक की अधिकता होने पर इसका असमय में वियोग भी हो जाता है, जो यथासमय देखने में आता रहता है । अतः ऐसे नश्वर शरीर को यदि मनुष्य किसी भी प्राणी की रक्षा में, उसकी भलाई में अथवा व्रती पुरुषों की वैय्यावृत्य में, उनकी सेवा टहल में लगा दे तो उसका शरीर पाना सफल होगा । मानव जीवन में सुख और दुःख गाड़ी के पहिये के समान सदा घूमते रहते हैं । कभी दुःख आ जाता है, तो कभी सुख भी -आ जाता है। यही जीवन का माधुर्य है । आज एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को हड़पना चाहता है और चाहता है कि मैं ही सर्वराष्ट्रों का एकमात्र अधिपति बन कर रहूं। इसके लिए वह न्याय का गला घोंटता है, नहीं करने योग्य कार्यों को भी किये बिना चैन नहीं लेता। आज जो शास्त्रों का निर्माण हुआ है वह इतना भयंकर और प्रलयङ्कर है कि कदाचित् उसमें से किसी एक का भी प्रयोग हो जाय तो दुनिया का बहु भाग नष्ट हो जाय। ऐसे ही प्रलयंकारी शस्त्रास्त्रों के निर्माण में बड़े-बड़े राष्ट्रों की होड़ लग रही है, जो न तो स्वयं ही रहेंगे और न दूसरों को ही सुख-शान्ति से रहने देंगे । [] यह जीवात्मा तो उस शुक के समान है, जो पिंजड़े में पड़ी हुई नलिनी को पकड़कर नीचे की ओर लटक रहा है और समझता है कि - हाय ! मुझे किसी नलिनी ने पकड़ रखा है । नलिनी जो जड़ है, अचेतन है, नासमझ है, वह तो किसी को पकड़तीधड़ती नहीं है । परन्तु यह अज्ञानी मूढ़ शुक ऐसा ही मान बैठा है, और दुःखी होता है । यदि वह चाहे तो अपनी नासमझी छोड़ कर बन्धन मुक्त हो सकता है, और दुःख की सन्तति से पार पा सकता है । जैसे बिना सीढ़ियों की सहायता के किसी ऊँचे रथ पर नहीं चढ़ा जा सकता, वैसे ही ध्यान रूप रथ पर भी बिना व्रत, श्रुत और तपरूप सीढ़ियों की सहायता के नहीं चढ़ा जा सकता । यही है, अन्यत्र नहीं । यह भारत आर्यभूमि है। मानव जन्म पाया है तो आर्यभावना रक्खें, आर्य क्रिया करें, आर्य विचारधारा का क्षेत्र D तुम अपने सामने एक महान् लक्ष्य रक्खो । अब तक तुम्हारा लक्ष्य रहा है केवल तात्कालिक क्षणिक सुख । तुम अपना लक्ष्य बनाओ अविनाशी स्थायी सुख । इसके लिए तुम्हें अपनी मान्यतायें बदलनी होंगी, अब तक के संस्कार बदलने होंगे । अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only ११५ www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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