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________________ म होने देना, कुलाचार-धर्माचार को सुरक्षित रखना-ये सभी अमूल्य कार्य स्त्रियों के हैं । स्त्री चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे और यदि वह चाहे तो उसे दरक बना दे। इस प्रकार स्त्री अपने पति की बहुत बड़ी सहायिका शक्ति है। स्त्री के बिना गृहस्थ मनुष्य न धर्म कार्य शान्ति से कर पाता है और न उसके व्यावहारिक कार्य सम्पन्न हो पाते हैं । इस प्रकार पतिव्रता स्त्री घर की साक्षात् लक्ष्मी है। Oआज जो ईसाई जाति संख्या में सबसे अधिक दिखाई दे रही है, ईसा का नाम, धाम, काम न जानने वाले लाखों भारतवासी भी ईसाई बने हुए नजर आ रहे हैं उसका कारण ईसाई समाज का साधर्मी वात्सल्यभाव ही है। वे करोड़ों रुपया खर्च करके अपने सभ्य, कार्यपटु पादरियों द्वारा दीन-हीन जनता की सहायता करके उनको ईसाई मत में दीक्षित करते हैं, फिर अच्छे शिक्षित बनाते हैं, उनके विवाह करा देते हैं। हजारों जैन परिवार इस महँगाई के युग में अपनी दरिद्रता के कारण अपना निर्वाह बड़ी कठिनाई से कर रहे हैं। बहुतसी अनाथिन स्त्रियों की जीवन-समस्या विकट बन गई है । हजारों गरीब बच्चे दरिद्रता के कारण पढ़ नहीं पाते। किन्तु हमारे धनी वर्ग में सहायता करने का भाव उत्पन्न ही नहीं होता। उन्होंने यही समझा हुआ है कि यह धन हमारे ही पास रहेगा और हम ही इसका उपयोग करेंगे। परन्तु आज की राजनीति समाजवाद (सोशलिज्म) या साम्यवाद (कम्युनिज्म) की ओर बढ़ रही है। इसके कारण अब धन कुछ थोड़े-से धनी लोगों के पास न रहेगा ।। धन-सम्पत्ति की ऐसी अस्थिर दशा में बुद्धिमान पुरुष वही कहलाएगा जो स्वयं अपने हाथों से धन धर्म-कार्यों में, समाजसेवा में तथा लोककल्याण में खर्व कर जाएगा। आज किसी धनी रईस की सन्तान निकम्मी व निष्क्रिय रहकर ऐशो आराम नहीं कर सकती। आज उन पुराने रईसों, राजाओं, जागीरदारों को भी अपने निर्वाह के लिए परिश्रम करना आवश्यक हो गया है। इसलिए धनसंग्रह अब उतना लाभदायक नहीं रहा जितना कि पहले कभी था। ऐसी दशा में धनिक जैन भाइयों को अपनी सम्पत्ति साधर्मी भाई-बहनों के उद्धार में व्यय करके यश और पुण्य कर्म-संचय तथा समाजसेवा का श्रेय प्राप्त करना चाहिये। कोई भी मनुष्य समाज से सर्वथा पृथक् रहकर अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता। समाज में घुल-मिलकर ही वह अपने जीवन का आनन्द उठा सकता है और दूसरे आस-पास के साथियों को भी उठाने दे सकता है। जब यह निश्चित है कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं रह सकता, तब यह भी आवश्यक है कि वह अपने हृदय को उदार बनाए, विशाल बनाए, और जिन लोगों से खुद को काम लेना है, उनके हृदय में अपनी ओर से पूर्ण विश्वास पैदा करे। जब तक मनुष्य अपने पार्श्ववर्ती समाज में अपनेपन का भाव पैदा न करेगा अर्थात् जब तक दूसरे लोग उसको अपना आदमी न समझेंगे और वह भी दूसरों को अपना आदमी न समझेगा, तब तक समाज का कल्याण नहीं हो सकता। Dजैन संस्कृति के महान संस्कारक अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने तो राष्ट्रों में परस्पर होने वाले युद्धों का हल भी अहिंसा के द्वारा ही बतलाया है । उनका आदर्श है कि धर्मप्रचार के द्वारा ही विश्व भर के प्रत्येक मनुष्य के हृदय में जंचा दो कि वह 'स्व' में ही सन्तुष्ट रहे, 'पर' की ओर आकृष्ट होने का कभी भी प्रयत्न न करे । 'पर' की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है दूसरों के सुख-साधनों को देखकर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुस्साहस करना । 0 प्रत्येक मनुष्य अपनी उचित आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही उचित साधनों का सहारा लेकर उचित प्रयत्न करे। आवश्यकता से अधिक किसी भी सुख-सामग्री का संग्रह कर रखना जैन संस्कृति में चोरी है। व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र क्यों लड़ते हैं ? इसी अनुचित संग्रह-वृत्ति के कारण। दूसरों के जीवन के सुख-साधनों की उपेक्षा कर मनुष्य कभी भी सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता। अहिंसा के बीज अपरिग्रहवृत्ति में ही ढूंढ़ जा सकते हैं। एक अपेक्षा से कहें तो अहिंसा और अपरिग्रह दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । Oआवश्यकता से अधिक संगृहीत एवं संगठित शक्ति अवश्य ही संहार-लीला का अभिनय करेगी, बहसा को मरणोन्मुखी बनाएगी । अतएव आप आश्चर्य न करें कि पिछले कुछ वर्षों में जो शस्त्रसंन्यास का आन्दोलन चल रहा था, प्रत्येक राष्ट्र को सीमित सामग्री रखने को कहा जा रहा था, वह जैन तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले चलाया था। आज जो काम कानून द्वारा, पारस्परिक विधान के द्वारा लिया जाता है, उन दिनों वह उपदेशों द्वारा लिया जाता था। भगवान महावीर ने बड़े-बड़े राजाओं को जैन-धर्म में दीक्षित किया था और उन्हें नियम दिया था कि वे राष्ट्र-रक्षा के काम में आने वाले शस्त्रों से अधिक संग्रह न करें। साधनों का आधिक्य मनुष्य को उद्दण्ड बना देता है। प्रभुता की लालसा में आकर कहीं न कहीं किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव-संहार में युद्ध की आग भड़का देगा। ११४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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