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________________ Dकुछ धनिक लोगों ने रात के समय रोटी खाना प्रारम्भ कर दिया है । उनकी देखा-देखी उनके बाल-बच्चे तथा अन्य साधारण व्यक्ति भी अपनी कुल-मर्यादा को तोड़ कर रात्रि-भोजन करने लगे हैं। देहली में आकर मालूम हुआ है कि वहां पर विवाह के समय बारात चढ़ने के बाद रात्रि के समय कन्या पक्ष वर पक्ष को जीमनवार कराता है। यह कितने धार्मिक पतन और दुःख की वार्ता है। दिल्ली के प्रमुख पुरुष अच्छे धार्मिक हैं । यदि वे इस आरम्भ होने वाली कुप्रथा के विरुद्ध आवाज उठावें और थोड़ी-सी भी प्रेरणा करें तथा स्वयं ऐसी रात्रि की जीमनवार न करावें, न ऐसे कार्य में सहयोग दें तो धर्मघातक यह प्रथा शीघ्र ही बन्द हो सकती है।। जनता में जैन साहित्य का इतना प्रसार करना चाहिये कि प्रत्येक विद्वान् तथा धर्मजिज्ञासु के हाथ में जैनधर्म के उपयोगी ग्रन्थ पहुंचे । अन्य लोग अपने पीतल को मुलम्मा करके जनता को अपने धर्म की ओर आकर्षित कर रहे हैं, इधर जैन समाज अपनी सुवर्णप्रभा को भी जनता के सामने रखने में प्रमाद करता है । भगवान् महावीर ने जहां आत्मकल्याणकारी उपदेश दिया, मुक्तिपथ का प्रदर्शन किया, अज्ञान, अन्ध श्रद्धा को मिटाया, ज्ञान प्रकाश किया, वहीं सामाजिक व्यवस्था की भी सुन्दर प्रणाली बतलाई। अपने भक्तों को चार संघों मे संगठित रहने की विधि का निर्देश किया। मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के उचित आचार का उपदेश भगवान् महावीर ने अच्छे ढंग से वर्णित किया । उस चतुर्विध संघ की संगठित प्रणाली भगवान् महावीर के पीछे भी चलती रही जिससे जैनधर्म की परम्परा अनेक विघ्न-बाधाओं के आते रहने पर भी बनी रही। 0 आज चतुर्विध संघ का संगठन शिथिल दिखाई पड़ रहा है, इसी से जैन समाज में निर्बलता प्रवेश करती जा रही है। अतः जैन धर्म को प्रभावशाली बनाने के लिए हमें अपने संघों को मजबूत करना चाहिये । 'संघे शक्तिः कलौ युगे'-इस कलियुग में संगठन द्वारा ही शक्ति पैदा की जा सकती है । इस कारण वीर शासन को व्यापक बनाने के लिए हमारा प्रथम कर्तव्य अपने सामाजिक संगठन को बहुत दृढ़ बनाना है । गत ८०० वर्ष की परतन्त्रता ने भारतीय विद्वानों के मस्तिष्क को भी परतन्त्र बना दिया है। अत: वे भी विदेशी ईर्ष्यालु इतिहासकारों की कल्पित कल्पना की प्रचण्ड धारा में बह कर भारत के प्राचीन गौरव से अनभिज्ञ बन गये हैं। भारत अब स्वतन्त्र है। अब भारतीय विद्वानों को स्वतन्त्र स्वच्छ मस्तिष्क से भारत के प्राचीन गौरव की खोज भारत के प्राचीन इतिहास ग्रन्थों के आधार से करनी चाहिये । जो व्यक्ति अच्छे अवसर से लाभ नहीं उठाता वह सचमुच में अभागा होता है। अतः हमको अपने प्रत्येक क्षण की कदर करनी चाहिये । अशुभ कार्य जितनी देर से किया जाए उतना अच्छा है और शुभ कार्य जितनी जल्दी किया जाए उतना अच्छा है। संसार का प्रत्येक जीव सुख और शान्ति चाहता है । दुःख और अशान्ति कोई भी जन्तु अपने लिये नहीं चाहता। परन्तु संसार में सुख-शान्ति है कहां? प्रत्येक जीव में किसी न किसी तरह का दुःख पाया जाता है । जन्म, मरण, भूख, प्यास, रोग, अपमान, पीड़ा, भय, चिन्ता, द्वेष, घृणा, प्रिय-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि दुःख के कारणों में से अनेक कारण जीव को लगे हुए हैं। इसी कारण प्रत्येक जीव किसी न किसी तरह व्याकुल है और व्याकुलता ही दुःख का मूल है । निराकुलता ही परमसुख है । अनन्त निराकुलता कर्मों के क्षय हो जाने पर प्राप्त होती है। इस मुक्ति के साधन तप, त्याग, संयम, सुख-शान्ति के साधन हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व-राग, द्वेष, काम, क्षोभ आदि विकृतभाव कर्मबन्ध के कारण हैं, अतः ये ही विकृत भाव दुःख और अशान्ति के साधन हैं। - अपनी मातृभाषा सीखने के साथ द्वितीय भाषा के रूप में भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत का अध्ययन करना भी आवश्यक है। संस्कृत भाषा में साहित्य, न्याय, ज्योतिष, वैद्यक, नीतिसिद्धान्त, आचार आदि अनेक विषयों के अच्छे-अच्छे सुन्दर ग्रन्थ विद्यमान हैं जिनको पढ़ने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान होना अति आवश्यक है । जर्मनी, रूस, जापान आदि विदेशों के विश्वविद्यालयों में संस्कृत भाषा पढ़ाई जाती है, तब हमारे विद्यार्थी संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ रहें, ये बड़ी कमी और लज्जा की बात है। Dघर की व्यवस्था पुरुष से नहीं हो सकती, बच्चों का पालन-पोषण पति नहीं कर पाता। भोजन बनाकर परिवार को पहले खिलाना, पीछे बचा-खुचा आप खाना, घर आये हुए अतिथि का सत्कार करना, मुनि-ऐलक आदि व्रती त्यागियों के आहारदान की व्यवस्था करना, घर स्वच्छ रखना, परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के वस्त्रों की स्वच्छता का ख्याल रखना, घर में अशुद्ध खान-पान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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