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राष्ट्र को सम्बोधन
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज
[जैन धर्म में एक समर्थ आचार्य को चतुर्विध संघ का सम्यक् मार्ग-दर्शन करना होता हे। चतुर्विध संघ से अभिप्राय मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका का है। आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने अपनी ५१ वर्षीय दिगम्बरी साधना में लगभग सम्पूर्ण राष्ट्र का भ्रमण किया है और अपनी प्रेरक वाणी से राष्ट्र को सम्बोधित किया है। आचार्य श्री का लक्ष्य एक आदर्श एवं धर्मप्राण समाज की रचना का रहा है। समाज की हर कमजोरी को उन्होंने इंगित किया है और मानव-कल्याण के लिए दिशा-निर्देश दिया है।
असंख्य जन-सभाओं में समय-समय पर दिये गए महाराज श्री के चिन्तनकण विभिन्न 'उपदेश-सार-संग्रह' ग्रन्थों के रूप में उपलब्ध हैं । प्रस्तुत लेख में आचार्य श्री द्वारा जयपुर, दिल्ली, कलकत्ता एवं कर्नाटक की जनसभाओं में दिये गये भाषणों के प्रेरक अंश डॉ. वीणा गुप्ता द्वारा समाकलित किए गए हैं ।-सम्पादक]
मनुष्य भव की सफलता तो उस धर्म आराधन से है जो देवपर्याय में भी नहीं मिलता और जिससे आत्मा का उत्थान होता है । आत्मध्यान द्वारा अनादि परम्परा से चली आई कर्म बेड़ी को तोड़कर मनुष्य सदा के लिए पूर्ण स्वतन्त्र, पूर्णमुक्त हो जाता है।
समय की गति अबाध है। पर्वत से गिरने वाली नदी का प्रवाह जिस तरह फिर लौटकर पर्वत पर नहीं जाता, इसी तरह आयु का बीता हुआ क्षण भी फिर वापिस नहीं आता, वह तो अपनी आयु में से कम हो जाता है । दुर्लभ नर-जन्म पाकर मनुष्य जीवन के अमूल्य क्षणों में से एक भी क्षण व्यर्थ नहीं खोना चाहिये। आत्म-कल्याण के कार्यों को करते चले जाना चाहिये । जो आज का समय है वह फिर कभी नहीं आयेगा।
C जैसे यात्रा करते हुए यात्री को किसी धर्मशाला में विविध देशों से आये हुए यात्री कुछ समय के लिए मिल जाते हैं। उसी तरह इस देह-रूपी धर्मशाला के कारण कुछ यात्री इस जीव को कुछ समय के लिए मिल जाते हैं, जिनमें से यह जीव अज्ञानवश विभिन्न व्यक्तियों को अपने शत्र, मित्र, पुत्र, भार्या, बहिन आदि मानकर उनसे तरह-तरह की चेष्टायें करता है।
ए हमारा प्रत्येक पग श्मशान भूमि की ओर ले जा रहा है, प्रत्येक श्वांस में आयु कम हो रही है, मृत्यु निकट आ रही है और प्रतिक्षण शक्ति क्षीण होती जा रही है, फिर भी हम समझते हैं कि हम बढ़ रहे हैं ।
o आधुनिक जैन जातियां भी प्रायः क्षत्रिय ही हैं किन्तु व्यापार करते रहने से जैन लोग वैश्य बनिये कहलाने लगे हैं; बनिये कहलाते-कहलाते सचमुच उनमें से वीरतापूर्ण क्षात्र तेज लुप्त हो गया है । वे डरपोक बन गये हैं । जब उन पर तथा उनके धर्मायतनों (मंदिरों) पर या उनके परिवार पर आक्रमण होता है तो वे शूरवीरता से उसका उत्तर नहीं देते, प्राणों के मोह में आक्रमणकारी का सामना करने में कतरा जाते हैं । इसके सिवाय जैन धर्मानुयायियों की प्रवृत्ति धन-संचय की ओर इतनी अधिक हो गई है कि वे आत्मा की सम्पत्ति को भूल कर भौतिक सम्पत्ति के मोह में फंस गये हैं। धर्मसाधना उनमें नाममात्र को देखा-देखी या कुलाचार के रूप में रह गई है। जिस धर्म आराधना के कारण जैन जनता ने अपना उत्थान किया, यश, धन, परिवार आदि से उनकी समृद्धि हुई, उसी धर्म-साधना को जैन समाज ने गौण कर दिया और धन की आराधना में अपना मन, वचन, शरीर लगा दिया। यह बहुत बड़ी भूल है। मूल (जड़) को सींचने से ही फल मिलता है । मूल को सुखाकर फल को सींचने से फल नहीं मिला करते। अतः लक्ष्मी, परिवार, यश, आदि की उन्नति के मूल कारण धर्मसेवन में ढिलाई नहीं करनी चाहिए।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनम्वन प्रन्य
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