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जो इस आसक्ति और अहंकार को मन से निकाल देते हैं वे ही वास्तव में बड़े हैं । कागज का मूल्य नहीं, किन्तु जब उस पर अंक की छाप और मोहर लग जाती है तो उस कागज के टुकड़े का भी मूल्य हो जाता है । इसी प्रकार इस शरीर का कोई मूल्य नहीं, किन्तु जब अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रह के भार को उतार कर मोहर लग जाती है तब यह शरीर भी पूज्य बन जाता है।
D मन को स्थिर करने के लिए स्वाध्याय अमोघ शक्ति है। स्वाध्याय संसार-सागर से पार करने को नौका के समान है, कषाय अटवी को दग्ध करने के लिए दावानल है, स्वानुभव-समुद्र की वृद्धि के लिए चन्द्रमा के समान है, भव्य कमल विकसित करने के लिए भानु है, और पाप रूपी उल्लू को छिपाने के लिए प्रचण्ड मार्तण्ड है।
0 स्वाध्याय ही परम तप है, कषाय निग्रह का मूल कारण है, ध्यान का मुख्य अंग है, शुद्ध ध्यान का हेतु है, भेद ज्ञान के लिए रामबाण है, विषयों में अरुचि कराने के लिए ज्वर सदृश है, आत्मगुणों का संग्रह कराने के लिए राजा तुल्य है ।
0 सत्समागम से भी विशेष हितकर स्वाध्याय है। सत्समागम आस्रव का कारण है, जबकि स्वाध्याय स्वात्माभिमुख होने का प्रथम उपाय है। सत्समागम में प्रकृतिविरुद्ध मनुष्य मिल जाते हैं, परन्तु स्वाध्याय में इसकी भी सम्भावना नहीं। अत: स्वाध्याय की समानता रखने वाले अन्य कोई कार्य नहीं। अतः स्वाध्याय की अवहेलना करने से हम दैन्य वृत्ति के पात्र और तिरस्कार के भाजन हो जाते हैं । कल्याण मार्ग में स्वाध्याय प्रधान सहकारी कारण है । स्वाध्याय से उत्कृष्ट कोई तप नहीं ।
स्वाध्याय आत्मशान्ति के लिए है, केवल ज्ञानार्जन के लिए नहीं। ज्ञानार्जन के लिए तो विद्याध्ययन है। स्वाध्याय तप है। इससे संवर और निर्जरा होती है। स्वाध्याय का फल निर्जरा है, क्योंकि यह अन्तरंग तप है। जिनका उपयोग स्वाध्याय में लगता है वे नियम से सम्यग्दृष्टि हैं।
n कामवासना को मजबूरी में दबाया जाय । लोकलाज या भय के कारण दबाया जाय तो उससे मन में उदवेलना होती और किन्त यदि उसे विवेक और समझ के साथ दबाया जाय, स्वेच्छा से काम-विजय की जाय तो उससे मन में बड़ा सन्तोष और तप्तिरहती है। स्वेच्छा से काम का त्याग या विवेक से काम पर विजय यही आचार्यों का उपदेश है।
0 मन में वासना न जगे, वही पूर्ण ब्रह्मचर्य है । तन का विकार मन के विकार पर निर्भर करता है। मन में शद्धि हो तो का निविकार रहेगा। जो लोकलाज या भय से शरीर को निर्विकार दिखाते हैं, किन्तु मन में जो विकार पालते-पोसते रहते हैं. वे. मायाचार करते हैं । ब्रहचर्य लोक-प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। उसे तुम अपने आत्मा का रूप मान कर पालो। मन में विकार मत आने दो। विकार आयें तो वस्तुस्वरूप का विचार करके मन को निर्विकार बनाने का प्रयत्न करो।
मन की गति दुनिया में सबसे तेज है । शब्द की गति बहुत तेज मानी जाती है। शब्द की गति से भी तेज चलने वाले विमान भी अब बन गये हैं। किन्तु मन की गति को कोई विमान नहीं पा सकता। मन अभी यहां है, अगले क्षण में हजारों मील दर है। मन उडान भरकर कभी स्वर्ग में पहच जाता है और कभी दूसरी जगह । मन की इस उड़ान के कारण इस जीत . .. का कोई ओर-छोर नहीं है, कोई अन्त नहीं।
0 कोई भी मनुष्य समाज से सर्वथा पृथक् रहकर अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता। समाज में घुल-मिल कर ही. वह अपने जीवन का आनन्द उठा सकता है । जब यह निश्चित है कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं रह सकता, तब यह आवश्यक है कि बह अपने हृदय को उदार बनाए, विशाल बनाए और जिन लोगों से खुद को काम लेना है या जिनको देना है, उनके हृदय में अपनी ओर से पूर्ण विश्वास पैदा करे। जब तक मनुष्य समाज में अपनेपन का भाव न पैदा करेगा अर्थात् दूसरे उसको अपना आदमी नहीं समझेंगे और वह भी दूसरों को अपना आदमी न समझेगा तब तक समाज का कल्याण नहीं हो सकता।
आचार्यस्ल श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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