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________________ का होना दर्शनविशुद्धि भावना है। देव, शास्त्र, गुरु तथा रत्नत्रय का हृदय से सम्मान करना, विनय करना, विनय-सम्पन्नता है। व्रतों तथा व्रतों के रक्षक नियमों (शीलों) में अतिचार रहित होना निःशीलवत भावना है । सदा ज्ञान-अभ्यास में लगे रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। धर्म और धर्म के फल से अनुराग रखना संवेग भावना है। अपनी शक्ति को न छोड़कर अन्तरंग बहिरंग तप करना शक्तितपस्त्याग है। अपनी शक्ति के अनुसार आहार, अभय, औषध और ज्ञान दान करना शक्तितप है । साधुओं का उपसर्ग दूर करना, अथवा समाधि सहित वीर मरण करना साधु समाधि है। व्रती त्यागी साधर्मी की सेवा करना, दुःखी का दुःख दूर करना वैय्यावृत्तिकरण है। अरहंत भगवान् की भक्ति करना अरहंत-भक्ति है । मुनि संघ के नायक आचार्य की भक्ति करना आचार्य भक्ति है । उपाध्याय परमेष्ठि की भक्ति करना बहुश्रुत-भक्ति है । जिनवाणी की भक्ति करना प्रवचन-भक्ति है । छह आवश्यक कर्मों को सावधानी से पालन करना आवश्यक अपरिहाणि है। जैनधर्म का प्रभाव फैलाना मार्ग प्रभावना है । साधर्मीजन से अगाध प्रेम करना प्रवचन वात्सल्य है । इन सोलह भावनाओं में से दर्शन विशुद्धि भावना का होना परमावश्यक है । दर्शन विशुद्धि के साथ कोई भी एक, दो, तीन, चार आदि भावना हों या सभी भावना हों तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। दशविध वा सम्यग्दर्शन १० प्रकार का है—(१) आज्ञा सम्यक्त्व, (२) मार्ग सम्यक्त्व, (३) उपदेश सम्यक्त्व, (४) सूत्र सम्यक्त्व, (५) बीज सम्यक्त्व, (६) संक्षेप सम्यक्त्व, (७) विस्तार सम्यक्त्व, (८) अथ सम्यक्त्व, (६) अवगाढ़ सम्यक्त्व, (१०) परमावगाढ़ सम्यक्त्व। __जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा का श्रद्धान करने से जो सम्यग्दर्शन होता है वह आज्ञा सम्यक्त्व है। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रदर्शित मुक्ति मार्ग ही यथार्थ है ऐसे अचल श्रद्धान से जो सम्यक्त्व होता है वह मार्ग सम्यक्त्व है । निर्ग्रन्थ मुनि के उपदेश को सुनकर जो आत्म-रुचि होकर सम्यग्दर्शन होता है वह उपदेश सम्यक्त्व है । सिद्धान्त सूत्र सुनने के पश्चात् जो सम्यक्त्व होता है वह सूत्र सम्यक्त्व है। बीज पद सुनकर जो सम्यक्त्व होता है वह बीज सम्यक्त्व है । संक्षेप से तात्त्विक विवेचन सुन कर जो सम्यग्दर्शन होता है वह संक्षेप सम्यक्त्व है। विस्तार के साथ तत्त्व विवेचन सुनने के बाद जो सम्यक्त्व होता है वह विस्तार सम्यक्त्व है । आगम का अर्थ सुनकर जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह अर्थ सम्यक्त्व है । द्वादशांगवेता श्रुतकेवली के जो सम्यक्त्व होता है उसे अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं । केवल ज्ञानी का सम्यक्त्व परमावगाढ़ सम्यक्त्व है। मायाचार, छलकपट, वचनवक्रता आदि रखकर जो मनुष्य जैन धर्म की आराधना करता है उसको वास्तव में जैन धर्म प्राप्त नहीं होता। 0 पुण्यहीन मनुष्य द्रव्य पाने की इच्छा से एक पर्वत पर चढ़ता है, और उस पर्वत के मार्ग में इधर-उधर निधि को बढ़ता है, ढंढते-ढूंढ़ते जब उसको वह निधि मिलने का समय आता है तब वह पागल हो जाता है। पागल हो जाने पर उसको उस पास पड़ी हुई हव्य का ज्ञान भी नहीं रहता। इसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक मनुष्य अनेक शास्त्र-वेद-पुराण आदि पढ़कर भी आत्मतत्त्व के यथार्थ निर्णय की बुद्धि न होने के कारण जैसे के तैसे अज्ञानी ही बने रहते हैं। पाप कर्म की कितनी शक्ति है ! दिगम्बर मुनि होकर कठोर तपस्या करके मनुष्य अहमिन्द्र पद भी पा लेता है परन्तु सम्यक्त्व न होने से उसका संसारभ्रमण नहीं छूट पाता। हाथ पर रक्खे हुए आंवले के समान विद्याओं और कलाओं को जानकर करोड़ों युग तक तपस्या करके भी सम्यग्दर्शन रूपी अमृत-रस का आस्वादन न करने वाले मनुष्य को मोक्ष प्राप्त नहीं होती। यह सम्यग्दर्शन अभव्य की तो बात ही क्या दूर-भव्य को भी दुर्लभ है । यह तो निकट-भव्य प्राणी को ही प्राप्त होता है। कितना भी प्रकाश क्यों न हो अन्धे मनुष्य को कुछ दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार अभव्य को चाहे कितना भी उपदेश दिया जाए, व्रताचरण कराया जाए किन्तु उसे सम्यक्त्व नहीं होता। नेत्र-रोग वाले मनुष्य को नेत्र ठीक हो जाने पर दिखाई देने लगता है उसी तरह दूर-भव्य को दीर्घ समय पीछे मिथ्यात्व हटने से सम्यक्त्व प्राप्त होता है। किन्तु जैसे ठीक नेत्र वाले मनुष्य को प्रकाश होने पर तत्काल दिखाई देने लगता है, उसी तरह निकट भव्य को सम्यक्त्व की प्राप्ति शीघ्र हो जाती है। 0 परम आराध्य श्री वीतराग भगवान् जिनेन्द्र देव का उपदिष्ट आगम तथा पदार्थ और जिनेन्द्र देव के चरणचिह्नों पर चलने वाले परम निर्मल निर्ग्रन्थ योगी का श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है। अर्हन्त भगवान्, जिनवाणी, निर्ग्रन्थ गुरु तथा जिनवाणी में प्रतिपादित पदार्थों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। - निर्ग्रन्थ गुरु के वचन रूपी दीपक द्वारा प्रकाशित और अपने सुयुक्ति रूपी नेत्रों से देखे हुए आत्म-स्वरूप का निश्चय सम्यग् ६६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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