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________________ वृक्ष का आश्रय लेने वाले को न मांगने पर भी छाया मिलती है। वीतराग देव ! आपकी स्तुति से भी अयाचित फल की प्राप्ति होती है । आप स्वयं किसी को कुछ देते भी नहीं और ग्रहण भी नहीं करते । परन्तु जो आपका आश्रय लेता है, उसको स्वयमेव फल मिल जाता है । जो भव्य प्राणी भक्ति से जिन भगवान का दर्शन पूजन और स्तुति किया करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुति के योग्य बन जाते हैं । गुरु की प्रसन्नता से वह केवलज्ञान रूपी नेत्र प्राप्त होता है जिसके द्वारा समस्त जगत् हाथ की रेखा के समान स्पष्ट देखा जाता है । धर्मात्मा है। 13 जिन गृहस्थों का हृदय जिनागम का अभ्यास करने के कारण दया से ओत-प्रोत हो चुका है, वे ही गृहस्थ वास्तव में जिस प्रकार फूलों के हारों की लड़ियाँ धागे के आश्रय से स्थिर रहती हैं उसी प्रकार समस्त गुणों का समुदाय प्राणीदया के आश्रय से स्थिर रहता है । निर्दयी मनुष्य के वे सब गुण भी दया के अभाव में बिखर जाते हैं । अतएव सम्यग्दर्शनादि गुणों के अभिलाषी धावक को प्राणियों के विषय में दयालु अवश्य होना चाहिये । [] प्राणियों के शरीर आदि सब नश्वर है। इसलिए उक्त शरीर आदि के नष्ट हो जाने पर भी शोक नहीं करना चाहिये, क्योंकि वह शोक पाप-बन्ध का कारण है । जिस प्रकार छिद्रयुक्त नाव घूमकर उक्त छिद्र के द्वारा जल को ग्रहण करती हुई अन्त में समुद्र में डूबकर अपने को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार यह जीव भी संसार में परिभ्रमण करता हुआ मिथ्यात्वादि के द्वारा कर्मों का आस्रव करके इसी दुःखमय संसार में घूमता रहता है । तात्पर्य यह है कि दुःख का कारण यह कर्मों का आस्रव ही है, अतः उसे छोड़ना चाहिये । उन्नत बुद्धि के धारक भव्य जीवों को पढ़ने के लिए भक्तिपूर्वक पुस्तक का जो श्रुतदान ( ज्ञानदान) कहते हैं । इस ज्ञानदान के सिद्ध हो जाने पर कुछ थोड़े से ही भवों में मनुष्य उस जिसके द्वारा सम्पूर्ण विश्व साक्षात् देखा जाता है । D सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से विभूषित पुरुष यदि तप आदि अन्य गुणों में मन्द भी हो तो भी वह सिद्धि का पात्र है। किन्तु इसके विपरीत यदि रत्नत्रय से रहित पुरुष अन्य गुणों में महान् भी हो तो भी वह सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता । मार्ग से परिचित व्यक्ति यदि चलने में मन्द भी हो तो वह धीरे-धीरे चलकर अभीष्ट स्थान में पहुंच जाता है । इसके विपरीत अन्य व्यक्ति जो मार्ग से अपरिचित है वह चलने में शीघ्रगामी होकर भी अभीष्ट स्थान को नहीं प्राप्त हो सकता । दान किया जाता है इसे विद्वज्जन केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, समवशरण में चारों प्रकार के देव और देवांगना, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि सभी प्रकार के प्राणी भगवान् के मंगलमय उपदेश को सुनने के लिये एकत्रित होते हैं । समवशरण में भगवान् ऐसे मालूम होते हैं कि चारों तरफ देखने वाले स्त्री-पुरुष सभी यह समझते हैं कि भगवान् मेरी तरफ देख रहे हैं। जहां पर भगवान् का समवशरण होता है उसके चारों तरफ सुकाल हो जाता है । वह ज्ञान प्रचार की ऐसी सभा है जिसमें प्राणीमात्र आकर सुख-शान्ति का अनुभव करते हैं और अपने जन्म को सफल बनाकर मोक्ष के मार्ग में लगते हैं। शास्त्रसार समुच्चय जिस व्यक्ति की ऐसी प्रबल शुभ भावना हो कि "मैं समस्त जगतवर्ती जीवों का उद्धार करू, समस्त जीवों को संसार से छुड़ाकर मुक्त कर दूँ" उस किसी एक बिरले मनुष्य के उपर्युक्त दशा में निम्नलिखित सोलह भावनाओं के निमित्त से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है 1 १. दर्शन विशुद्धि २. विनय संपन्नता ३. अतिचार रहित शीलव्रत, ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ५. संवेग ६. शक्ति अनुसार त्याग, ७. शक्ति अनुसार तप ८. साधु समाधि १. वैयावृत्तिकरण १०. अरहंत भक्ति ११. आचार्य भक्ति १२. बहुश्रुत भक्ति, १३. प्रवचन भक्ति, १४. आवश्यक अपरिहारिण, १५. मार्ग प्रभावना, १६. प्रवचन वात्सल्य । 1 1 शंका, कांक्षा, विचिकित्सा मूडदृष्टि, अनूपगूहन, अस्थितिकरण, अप्रभावना, अवात्सल्य ये आठ दोष, कुलमद, जातिमद, बलमद, ज्ञानमद, तपमद, रूपमद, धनमद, अधिकारमद ये आठ मद, देवमूढता, गुरुमूढता, लोकमूढता ये मूढताएं हैं तथा छ: अनायतन, कु गुरु, कुगुरु भक्ति, कुदेव, कुदेव भक्ति, कुधर्म, कुधर्म सेवक ऐसे सम्यग्दर्शन के ये पच्चीस दोष हैं। इन दोषों से रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only ६५ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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