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सुख और शान्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब जीव अपने यथार्थ स्वरूप को अवगत कर ले । पराधीनता भी अशान्ति का दूसरा नाम है तथा इसकी उत्पत्ति भी विकार और कषायों से होती है । जब तक जीव विकारग्रस्त रहता है तब तक वह अपने चारों ओर अशान्ति ही अशान्ति देखता है। विकारों की प्रचुरता ही जीव को राग और द्वेष-बुद्धि की ओर अग्रसर करती है जिससे वह शत्रुता और मित्रता की कल्पना करता है । अतएव जीव का हित विकारों को दूर करने में ही है।
आत्मचिन्तन से मन पवित्र हो जाता है, गन्दे और बुरे विचार रुक जाते हैं तथा धीरे-धीरे ज्ञानानन्दमय स्वभाव की प्राप्ति हो जाती है। विषयाधीन रहने वाले मन और शरीर स्वतन्त्र हो जाते हैं। विषय-वासना के न होने से ज्ञानाभ्यास, विषय-व्याकुलता हटने से शान्ति ; अनशनादि तपों के करने से शरीर से ममत्वबुद्धि का त्याग तथा स्व की पहिचान ; त्रिकाल सामायिक करने से आत्मानुभूति; ईर्यापथ शुद्धि के पालने से समताबुद्धि एवं मन-वचन काय को आधीन करने से विश्व बन्धुत्व तथा स्वावलम्बन की प्रवृत्ति होती है। अतः योगीश्वर अपने आत्मकल्याण में प्रवृत्त होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। वह इस मनुष्य जीवन को व्यर्थ नहीं खोता।
राजीव का कल्याण अपने स्वरूप में अवस्थित होने पर ही हो सकता है। राग-द्वेष और मोह के निकलने पर ही जीव में साम्यभाव आ सकता है । साम्यभाव के आ जाने से आशाएँ, आकांक्षाएँ तत्काल दूर हो जाती हैं तथा चंचल मन जो सर्प के समान सर्वत्र विचरण करता है, शान्त हो जाता है। संसार और विषयभोगों से विरक्ति, शारीरिक आवश्यकताओं से आसक्ति एवं विकार और कषायों की पूर्ति करने की वांछा साम्यभावना के द्वारा ही दूर की जा सकती है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को विकार और कषायों को जीतने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये । इनके जीते बिना आत्मोत्थान के मार्ग में प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
O आत्मानन्द का पान करने से अद्भुत तृप्ति होती है तथा ध्यान करने की शक्ति भी आती है। जो प्रारंभिक साधना करना चाहते हैं उन्हें तो केवल एकान्त में बैठकर कुछ समय तक आत्मानन्द का पान करने का अभ्यास करना चाहिये तथा अपने को सभी द्रव्यों से स्वतन्त्र अनुभव करना चाहिए ।
णमोकार मन्त्र के ध्यान से समस्त पाप दूर हो जाते हैं । आत्मा पवित्र हो जाती है। इस मन्त्र में ऐसी विचित्र शक्ति है कि संसार का बड़े से बड़ा काम इसके स्मरण मात्र से सिद्ध हो जाता है । जो व्यक्ति भावपूर्वक प्रतिदिन इस मन्त्र का जाप करते हैं उनको ऐहिक सुखों के साथ पारलौकिक सुख भी प्राप्त होते हैं। संसार का परिभ्रमण चक्र इससे समाप्त होता है और आत्मस्वतन्त्रता की प्रेरणा होती है।
0 कमल के डंठल में नीचे से लेकर ऊपर तक जिस प्रकार निर्मल तन्तु सर्वांगीण रूप से व्याप्त रहते हैं उसी प्रकार मनुष्य के अंगूठे से लेकर मस्तक तक समस्त शरीर में आत्मा व्याप्त है । शरीर का कोई भी भाग ऐसा नहीं है जिसमें आत्मा न हो। यह आत्मा अखण्ड, अविनाशी, निराकार, चिदानन्द स्वरूप है ।
0 मनुष्य की आत्मा स्फटिक मणि के समान निर्मल है। अनादि कर्म-कालिमा के कारण यह आत्मा अशुद्ध हो रही है तथा नाना प्रकार के शरीरों को इसे धारण करना पड़ता है। इस आत्मा का कोई रूप-रंग नहीं है और न इसकी कोई जाति है । यह तो स्वभाव से निराकार है। इसमें शरीर के निमित्त से भेद किये जाते हैं। जैसे शरीर के आवरण में यह रहती है, इसका व्यवहार भी वैसा ही हो जाता है ।
O जो आत्मध्यान करना चाहे उसको तप का प्रेमी होना चाहिये । सांसारिक विषयों की कामनाएँ न कर निज सुख के रमण का प्रेमी होना चाहिये। ध्यान के अभ्यासी को शास्त्रों का ज्ञान व उनका निरन्तर मनन करना चाहिये । जितना साफ व अधिक तत्त्वों का ज्ञान होगा, उतना ही अधिक निर्मल ध्यान का अभ्यास होगा ।
0 समस्त कर्मों का नाश कर मोक्ष की प्राप्ति होती है । गहस्थावस्था में रहकर कोई भी व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति के लिये तैयारी कर सकता है । भेद विज्ञान द्वारा अपने स्वरूप का विचार करना तथा निरन्तर आत्मद्रव्य को संसार के समस्त पदार्थों से भिन्न अलौकिक शक्तिधारी सोचना और तदनुकूल आचरण करना ही गृहस्थावस्था का पुरुषार्थ है। शरीर और भोगों से परम उदासीनता धारण करना एवं परिणामों में विरक्ति लाना गृहस्थ जीवन में स्वतन्त्रता प्राप्ति के साधन हैं।
D संसार के सभी प्राणी सुख चाहते हैं । इस सुख के लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं । परन्तु यह सुख तब तक नहीं प्राप्त हो सकता जब तक जीव सुखवाधक अनिष्ट कर्म को नष्ट न कर दे । अनिष्ट कर्मों का नाश एकमात्र सच्चे चारित्र ज्ञान से प्राप्त होता है । जब कोई भी व्यक्ति अपने स्वरूप का विश्वास कर लेता है ; अपनी आत्मा को संसार के पदार्थों से भिन्न और स्वतन्त्र अनुभव करता है, उस समय उसे अपूर्व शान्ति मिलती है ।
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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