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________________ करता है, जिसे फल की आकांक्षा नहीं और जो परिणाम के बुरे या अच्छे होने से भी विचलित नहीं होता है तथा कार्य करना ही जिसके जीवन का लक्ष्य रहता है और जो निरन्तर कर्तव्य को ही अपना सब कुछ मानता है, ऐसा व्यक्ति घर में रहता हुआ भी संन्यासी है। 0 मनुष्य को शरीर और धन की आशा जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे मोह की गांठ मजबूत होती जाती है। संसारी जीवों के लिए आशा इन्द्रियों को उन्मत्त करने वाली मदिरा है, विषय-विष बढ़ाने वाली लता है। समस्त दुःखों का एकमात्र कारण यह आशा है । संसार में आशा को दूर करने पर ही कोई सुखी हो सकता है । प्रत्येक व्यक्ति को दान अवश्य करना चाहिए, इससे जीवन में मोह कम हो जाता है, भावनाएँ परिष्कृत और विशुद्ध हो जाती हैं, व्यक्ति स्वार्थ के संकुचित दायरे से हटकर परोपकार के विस्तृत क्षेत्र में पहुंच जाता है। स्वाध्याय करना तो मानव-जीवन के लिये बहुत ही आवश्यक है । जो प्रतिदिन ज्ञानार्जन करता है, वह संसार के विषयों की भयंकरता से बच सकता है। स्वाध्याय सबसे बड़ा तप है । स्वाध्याय करने से भावनाएँ पवित्र बनी रहती हैं, मन में एकाग्रता आती है, विषयों से अरुचि उत्पन्न होती है तथा भौतिकता निस्सार प्रतीत होती है। D ज्ञान के समान संसार में कोई बड़ा पदार्थ नहीं है क्योंकि ज्ञान ही लोक-परलोक और आत्मा-परमात्मा का यथार्थ स्वरूप अवगत कराता है । सच्चे ज्ञान का एक कण भी इस जीव के लिए महान् उपकारी हो सकता है । महापुरुषों ने स्वाध्याय को संसारसागर से पार उतरने के लिए नौका बताया है। स्वाध्याय का रस आ जाने पर सारी आकुलता दूर हो जाती है । वस्तु का यथार्थ मर्म मालूम हो जाता है। अनादिकाल से चली आयी कर्म-कालिमा दूर हो जाती है। 0 पूजा दो प्रकार की होती है-द्रव्य पूजा, भाव पूजा । शुद्ध लक्ष्य से जो भगवान् का पूजन किया जाता है वह द्रव्य पूजा (अष्ट द्रव्य) कहलाती है। यह द्रव्य पूजा भाव के लिए कारण होती है । द्रव्य पूजा के लिये गृहस्थ अधिकारी है और भाव पूजा के मुनिजन । अष्ट द्रव्यों से पूजा करना द्रव्य पूजा है और बिना द्रव्यों के स्तोत्र पढ़ना एवं भगवान् के गुणों का चिन्तन करता भाव पूजा है। 0 वीतरागी प्रभु तो पूजा से न सन्तुष्ट होते हैं और न निन्दा से असन्तुष्ट । परन्तु पूजक और निन्दक को अपनी करनी का फल अवश्य मिल जाता है । भावनाएँ विशुद्ध या अपवित्र जैसी भी रहती हैं कर्मों का बन्ध भी वैसा ही होता है। ० संसार-सागर को पार करने का सहज उपाय भगवान् जिनेन्द्र देव की पूजा ही है। भगवान् की पूजा करने से सम्यग्दर्शन गुण तो विशुद्ध होता ही है, साथ ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भी प्राप्ति होती है । पूजा करना, दर्शन करना, स्तोत्र पढ़ना प्रत्येक श्रावक का दैनिक कर्तव्य है । कोई भी व्यक्ति भगवान् की पूजा कर अपनी भावनाओं को आसानी से पवित्र कर सकता है। मन को वश में करने के लिए तथा विषयों का त्याग करने के लिए पूजा बड़ी ही सहायक है। इसके द्वारा मन को स्थिर कर भीतर के मोह को जीता जा सकता है, और आत्मानुभूति को प्राप्त किया जा सकता है। स्वावलम्बन-प्राप्ति के लिए आचार्य ने तीन बातें बतलायी हैं--(१) सहिष्णु होना-पर द्रव्य को दूर करने के लिए कष्टसहिष्णु बनना । तपश्चर्या, उपवास आदि के द्वारा अपना शोधन करना, जिससे कषाय उत्पन्न न होने पावे। सहिष्णु व्यक्ति अपने मार्ग में कभी असफल नहीं होता है । (२) संयम-इसके द्वारा इंद्रिय और मन को वश कर विकार और कषायों से अपनी रक्षा की जाती है। संयम के ही द्वारा जीव रत्नत्रय मार्ग का अवलम्वन करने में समर्थ हो सकता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करना भी सयम के भीतर परिगणित है। राग भाव संयमी के हृदय से बिल्कुल हट जाता है। (३) रत्नत्रय मार्ग का अनुसरण करनाजब यह विश्वास हृदय में उत्सन्न हो जाय कि मैं स्वतन्त्र द्रव्य हूं, मेरा सम्बन्ध इन पर-वस्तुओं से बिल्कुल नहीं है, अतः मेरा प्रत्येक प्रयत्न अपसे स्वरूप की प्राप्ति के लिये है। 0 जैसे अग्नि में ईंधन डालने से अग्नि बढ़ती जाती है वैसे ही तृष्णावान् प्राणी कितना भी भोग करे परन्तु उसकी तृप्ति कभी नहीं हो सकती। तृष्णा का रोग बढ़ता जाता है। तृष्णा का रोग जिससे मिटता है वह दवा है-एक शान्त रसमय निज आत्मा का ध्यान, जिससे स्वाधीन आनन्द जितना मिलता जाता है, उतना ही विषय भोगों का रोग घटता जाता है। अतएव इन्द्रिय सुख की आशा छोड़कर अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का उद्यम करना चाहिये। वासनाएँ जितनी अधिक बढ़ती जाती हैं जीव को उतनी ही अधिक अशान्ति का सामना करना पड़ता है। वास्तव में शान्ति त्याग रूप में ही मिलती है। क्योंकि पर-वस्तुओं की ममता जितने अंश में रहती है जीव को अशान्ति उतने ही अंश में अधिक मिलती है। धन और कामिनी जीव को स्वावलम्बी बनने में सबसे बड़े बाधक हैं। आत्मा की अपार शक्ति का विकास इस मदन ज्वर के दूर करने पर ही होता है। अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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