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________________ उन्हें मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। संसार के सभी पदार्थ क्षणभंगुर हैं। इनकी अनित्यता को देख कर भगवान की भक्ति करना तथा ध्यान और तपश्चरण द्वारा कर्म-कालिमा को पृथक् करना आवश्यक है। 0 सबसे पहले जीव को इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिए। क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों को भी आत्मा में उत्पन्न न होने देना चाहिए । निमित्त मिलने पर भी जो इन कषायों को नहीं उत्पन्न होने देते वे ही वीर हैं ; आत्मा के सच्चे कल्याणकारी हैं। 0 सत्पात्र के प्रति दान में अपनी लक्ष्मी का उपयोग धर्मात्मा लोग करते हैं । इसलिए वह पवित्र द्रव्य सदाचार को उत्पन्न करता है ; नम्रता को बढ़ाता है ; ज्ञान की उन्नति करता है ; पुरुषार्थ उत्पन्न करता है। शास्त्र-ज्ञान प्रबल करता है; पुण्य का संचय करता है, पाप का नाश करता है। अतः सत्पात्र को नियम से दान देना चाहिए। जो व्यक्ति वर्तमान में दुःखी है, उसके लिए भी धर्म परम सुखदायक है। धर्म-सेवन के लिए धन की आवश्यकता नहीं है। बिना धन के भी धर्माचरण किया जा सकता है। क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय को मन्द करना, दया धर्म का अनुसरण करना, अभिमानवश किसी भी व्यक्ति को बुरे वचन न कहना, हितमित-प्रिय वचनों का व्यवहार करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपकारी है। 0 जो मनुष्य पुण्य संचय के लिए सत्पात्र को सक्रिय द्रव्य देता है उसको समत्ति प्राप्त होती है। सद्बुद्धि उसे ढूंढ़ती है, कीर्ति उसकी तरफ देखती है । प्रीति चुम्बन करती है। सौभाग्य उसकी सेवा करता है। आरोग्य उसका आलिंगन करता है। सुख की प्राप्ति होती है। स्वर्ग की सम्पत्ति उसका वरण करती है। 0 धर्म कल्पवृक्ष के समान अचिन्त्य फल ही नहीं देता अपितु उससे भी अधिक देता है । कल्पवृक्ष से फल पाने के लिए तो मन में संकल्प करना पड़ता है पर धर्म के लिए यह बात नहीं है। यह तो स्वयं जीव को सुख प्रदान करता है। धर्म-से वन द्वारा दुष्कर कार्य भी सुखकर हो जाते हैं । 0 गृहस्थाश्रम में रह कर सांसारिक सुखों को भोगते हुए भी जीव पुण्य बंध कर सकता है । अपनी आत्मा का उत्थान कर सकता है। आत्मकल्याण के लिए बिना घर छोड़े भी अभ्यासवश कषाय मन्द की जा सकती है। इन्द्रियजयी व्यक्ति भी कषायों को मन्द करता है । अतएव पुण्यार्जन के लिए निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। हे प्रभो! आपकी स्तुति और पूजा की तो बात ही क्या है । वह रागादि समस्त दोषों को दूर करने वाली है। आपके नाम मात्र से ही जीवों के पाप नष्ट हो जाते हैं । आपके नाम तथा गुणों के स्मरण करने से वह शक्ति आ जाती है जिससे समस्त पापकालिमा दूर हो जाती है, पुण्य का संचय हो जाता है और आत्मानुभूति जागृत हो जाती है। मिथ्याज्ञान के रहने से जीव की जो प्रवृत्ति होती है वह मिथ्या चारित्र कहलाती है । मिथ्यादर्शन के कारण यह जीव पर को अपना मानता है तथा पर में ही प्रवृत्ति करता है । आत्मा के निज गुणों में इस जीव की प्रवृत्ति नहीं होती। अतः प्रत्येक व्यक्ति को विषय-वासनाओं की ओर से अपनी प्रवृत्ति को हटाकर आत्मा की ओर लगाना चाहिए। तभी आत्मा का कल्याण हो सकेगा। 0 शास्त्र और काव्य ऐसा होना चाहिए जिससे इनके अध्ययन द्वारा प्रत्येक मनुष्य अपने आचरण को उन्नत कर सके तथा मनोबल, वचन बल व कायबल को दृढ़ कर सके । सदाचार की नींव ये तीनों बल हैं। मन के सबल होने से बुरे संकल्प मन में उत्पन्न नहीं होते, विचार शुद्ध रहते हैं तथा हृदय में निरन्तर शुद्ध भावनाएं उत्पन्न होती हैं। हृदय के स्वच्छ हो जाने से वचन भी बुरे नहीं निकलते। वचन शक्ति इतनी सबल हो जाती है कि सत्य के सिवाय मिथ्या वाणी कभी मुख से नहीं निकलती। संसार का सबसे बड़ा पाप मन की निर्बलता से होता है। जिसका मन निर्बल है वह डरपोक होता है, भय और आशंका सर्वदा उसके सामने रहती है। सबल मस्तिष्क में अशुद्ध विचार उत्पन्न नहीं हो सकते । कमजोर हृदय के व्यक्ति जल्दी पाप करने पर उतारू हो जाते हैं । अत: निर्भय बनना और सत्य बोलना मनुष्य का परम कर्तव्य है। 0 प्रातः काल उठकर भगवान् जिनेन्द्रदेव के गुणों का स्तवन करना चाहिए। स्तवन के पश्चात् प्रत्येक व्यक्ति को विचारना चाहिए कि मैं कौन हूं ? मेरा कर्तव्य क्या है ? क्या मेरा धर्म है ? मुझे क्या करना है ? मैं क्या कर रहा हूं ? अब तक मैंने क्या किया है ? आदि। इन बातों के सोचने से मनुष्य के मन में कल्याण करने की प्रेरणा जाग्रत होती है। भक्ति में बड़ा भारी आकर्षण होता है। यद्यपि वह हृदय की रागात्मक वृत्ति है फिर भी इसमें जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। भगवान के पवित्र गुणों का स्मरण करने से आत्मा में निजानुभूति की शक्ति आती है जिससे पर-पदार्थों से ममत्व बुद्धि दूर हो जाती है। 0 गृहस्थ अवस्था में रहकर भी मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है। घर में रहते हुए भी जो सर्वथा अनासक्त होकर कार्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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