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________________ दर्शन है । अचल सुमेरु भी कदाचित् चलायमान हो जाए, अग्नि भी कदाचित् शीत (ठण्डी) बन जाए तथा चन्द्र में भी कदाचित् उष्णता प्रगट होने लगे, परन्तु जिनेन्द्र भगवान् के वचन कदापि अन्यथा नहीं हो सकते, ऐसी अचल श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है। समस्त संसार मोह-जाल में फंसा हुआ है उस मोह-जाल को छिन्न भिन्न करके मोक्ष की ओर आकर्षित करने वाला जिनमार्ग है, अन्य कोई मार्ग नहीं है, ऐसी निश्चल श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है । जिनेन्द्र देव की जैसी आकृति आंखों से देखी है, उसको मन में रखकर फिर सिद्ध परमेष्ठी को साक्षात् देख लेने की हृदय में भावना करना सम्यक्त्व है। O बाह्य क्रियाओं को छोड़ दो, सद्गुरु के उपदेश रूपी रत्न-ज्योति से मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को हटा कर अन्तर्मुख हो जाओ, निचश्ल चित्त बन जाओ, स्वाधीन सुखामृत में मग्न हो जाओ। ऐसी वृत्ति रखने वाला शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और संसार-सागर के पार पहुंचने वाला है। O सम्यक्त्व का नष्ट होना मिट्टी के घड़े के टूटने के समान है और चारित्र का नष्ट होना सुवर्ण घड़े के टूटने के समान है। मिट्टी का घड़ा टूट जाने पर फिर नहीं जुड़ सकता किन्तु सोने का घड़ा टूट जाने के बाद भी फिर जुड़ जाता है । इसी प्रकार सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर आत्मा का सुधार नहीं हो सकता, चारित्र नष्ट हो जाने पर फिर भी आत्मा सुधर जाती है। D जहां पर जिनेन्द्र देव का पूजन महोत्सव होता है वहाँ जाकर हर्ष मनाना, जिनेन्द्र भगवान् की महिमा नकर और देख कर आनन्द मनाना, जैन शास्त्रों के महान् विस्तार को देखकर हर्ष मनाना, जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार करने में आनन्दित होना, जिनागम में सारतत्त्व का विवेचन देखकर प्रसन्न होना, जिन-चैत्यालय को देखकर हर्षित होना, इस प्रकार की प्रवृत्ति वाला शुद्ध सम्यक्त्वी है। हे भव्य जीव ! तू इस संसार में अनादि समय से भटक रहा है। इस लोकाकाश का कोई भी ऐसा प्रदेश शेष नहीं रहा जहां तू उत्पन्न नहीं हुआ। कोई ऐसा पदार्थ नहीं बचा जिसको तूने भक्षण नहीं किया, तू जगत् के समस्त प्रदेशों में घूम आया, कर्म-बन्धन के समस्त भाव भी तूने प्राप्त किये, संसार की समस्त पर्यायें तू प्राप्त कर चुका है। इतना सब कुछ होकर भी दुर्मोह से तू फिर उन्हीं पदार्थों की भिक्षा मांगता है यह तुझे शोभा नहीं देता। तू अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष अवलोकन कर, यही श्रेष्ठ है और अन्त में तू नित्य निरञ्जन मोक्ष-वैभव को इसी से प्राप्त करेगा। । पृथ्वी पर हाथ का आघात करने से पृथ्वी पर चिह्न पड़ता है, वह कदाचित् चूक जाय या विफल हो जाय परन्तु जिनेन्द्र भगवान का उपदेश कभी निष्फल नहीं हो सकता । यदि अर्हन्त भगवान् की वाणी निष्फल हो जाएगी तो समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ देना, अचल सुमेरु चलायमान हो जाएगा तथा सूर्य के उदय-अस्त होने का क्रम भी भंग हो जाएगा। - जिनेन्द्र देव के वचन रसामृत का आस्वादन करना, उसको श्रेयस्कर मानना, उसमें ही निमग्न होना, उसी में आनन्द अनभव करना, अनुपम सुख का बीज है । सम्यक्त्व ही परम पद है, सम्यक्त्व ही सुख का घर है, सम्यक्त्व ही मुक्ति का मार्ग है, सम्यक्त्वमटित तप ही सफल है। सम्यक्त्व में प्रवृत्ति करना, आत्म-श्रद्धा करना, जिन-भक्ति करना, तत्त्वों में रुचि करना, आत्म-ज्ञान होना.पर सब सम्यग्दर्शन के पर्याय नाम हैं । 0 संसार तथा शरीर, विषय भोगों से विरक्त गृहस्थ जब पांच उदुम्बर फल (बिना फूल के ही जो फल होते हैं-१. बड़, २.पीपल, ३. पाकर, ४. ऊमर, ५. कठूमर) भक्षण के त्याग तथा ३ मकार (मद्यपान, मांस भक्षण, मधु भक्षण) के त्याग के साथ सम्यगदर्शन (वीतराग देव, जिनवाणी, निर्ग्रन्थ साधु की श्रद्धा) का धारण करना दर्शन प्रतिमा है । हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पांच पापों के स्थल त्याग रूप अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह परिमाण, ये पांच अणुव्रत, दिग्वत, देश व्रत, अनर्थ दण्ड व्रत, ये तीन गणव्रत, सामायिक, प्रौषधोपवास भोगोपभोग परिमाण, अतिथि संविभाग, ये चार शिक्षावत (५+३+४-१२) हैं, इन समस्त १२ व्रतों का आचरण करना व्रत प्रतिमा है। 0 संकल्प से (जान बूझकर) दो इन्द्रिय आदि वस जीवों को न मारना अहिंसा अणुव्रत है। राज-दण्डनीय, पंचों द्वारा भंडनीय, असत्य भाषण न करना सत्य अणुव्रत है । सर्वसाधारण जल मिट्टी के सिवाय अन्य व्यक्ति का कोई भी पदार्थ बिना पूछे न लेना, अचौर्य अणुव्रत है। आनी विवाहित स्त्री के सिवाय शेष सब स्त्रियों से विषय-सेवन का त्याग ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। सोना, चांदी, वस्त्र, बर्तन, गाय आदि पशु धन, गेहूं आदि धान्य, पृथ्वी, मकान, दासी (नौकरानी), दास (चाकर) तथा और भी परिग्रह पदार्थों को अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण करके शेष परिग्रह का परित्याग करना परिग्रह परिमाण व्रत है । पंच पापों का आंशिक त्याग होने से इनको अणुव्रत कहते हैं। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य तथा ऊर्ध्व (पृथ्वी से ऊपर आकाश) और अधः (पृथ्वी से नीचे), इन दस दिशाओं में आने-जाने की सीमा जन्म भर के लिए करना 'दिग्वत' है। दिग्वत के भीतर कुछ नियत अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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