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________________ Dविवेकी जन एकाग्र होकर सम्पूर्ण पर-पदार्थ को त्याग करके जब आत्मा में लीन होता है तब वह अपने अन्दर आत्मा . का अनुभव करके उसी में रत होकर अखण्ड अविनाशी सुख की प्राप्ति करता है। आत्मा एक दिन में दीखने वाला नहीं है। क्रम-क्रम से ही दीखेगा । आत्मा कभी-कभी अनेक चन्द्रमाओं और सूर्यों के प्रकाश के समान उज्ज्वल होकर दिखाई देता है । कभी-कभी चंचलता आने पर मन्द दिखाई देता है, फिर स्थिरता आने पर प्रकाशमान दिखाई देता है । हे योगी ! ध्यान के समय जो प्रकाश दीखता है वह श्रुतज्ञान है, सुदर्शन है, रत्नत्रय है। जिस समय कर्म झरने लगता है तब आत्म-सुख की वृद्धि होती है। 0 जिस समय आत्मा अपने निज स्वरूप में रत हो जाता है, बाहर की बोल-चाल बन्द हो जाती है। शरीर नहीं चलता है। कोई संकल्प-विकल्प की भावना नहीं आती है। कषाय की भावना बन्द हो जाती है । मन स्थिर होता है तब आत्मा उज्ज्वल प्रकाशमान दिखाई देती है। योगियों को चाहिये कि वे अविद्या रूपी प्रबल शत्रु से बचें तथा कल्याणकारी परम पवित्र अध्यात्म-विद्या रूपी सूर्य हृदय से स्वीकार करें । अविद्या ही चेतन तथा अचेतन तथा सूक्ष्म पदार्थ में शंका करा देती है। 0 जब तक मन, वचन, काम और इन्द्रियाँ वश में न होंगी तब तक कभी स्वाध्याय नहीं हो सकता। बिना स्वाध्याय के कर्मों का क्षय और अनुपम मोक्ष का प्राप्त होना असम्भव है। केवल ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद तीनों लोकों के समस्त प्राणियों को समझाने योग्य निरक्षर दिव्य ध्वनि होने लगेगी जिससे विश्व कल्याणकारी महाधर्मोपदेश के प्रभाव से समस्त प्राणियों को स्व-पर का अमित ज्ञान-लाभ होगा । जो स्व-पर-ज्ञान करके अपना कल्याण करना चाहता है उसे हमेशा सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए स्वाध्याय से अपने अज्ञान को दूर करना चाहिए। Dज्ञानी के हृदय-स्थान में जो ज्ञान रूपी दीपक प्रकाशमान है, वह उत्कृष्ट प्रकाश है। वायु आदि कोई भी द्रव्य उसका विनाश नहीं कर सकता । सूर्य-प्रकाश तो आकाश में मेघ-मालाओं से आच्छादित हो जाता है, परन्तु ज्ञान-सूर्य सदैव प्रकाशमान रहता है। हे प्राणियो ! तुमको सुख और शान्ति चाहिए तो मोह-निद्रा को त्याग कर जाग्रत हो जाओ। अगर मृत्यु का भय नहीं चाहते हो और जन्म-मरण में पड़ना नहीं चाहते हो तो तुम आत्म-सुख की प्राप्ति का प्रयत्न करो। आयु का कोई भरोसा नहीं है। 0 मोहरूपी कर्दम के क्षीण होने पर तथा रागादिक परिणामों के प्रशान्त होने पर योगीगण अपने में ही परमात्मा के स्वरूप का अवलोकन करते हैं । हे आत्मन् ! अपने मन को संक्लेश, भ्रान्ति और रागादिक विकारों से रहित करके अपने मन को वशीभूत कर तथा वस्तु के यथार्थ रूप का अवलोकन कर । 0 परमात्मा तुम्हारे शरीर में पाँव के अंगुल से लेकर मस्तिष्क तक सम्पूर्ण अवयवों में तेल में तिल की भांति रमा रहता है। वह ज्ञान स्वरूप और सम्यक् चारित्र रूप अत्यन्त तेजस्वी प्रकाश स्वरूप है । वह पुनः मंगल स्वरूप, अतिशय युक्त, कषाय रहित होकर अपने स्वरूप को प्राप्त होता है। - जब तक संसार की सार तथा असार वस्तु को विचार कर नहीं देखोगे तब तक आत्म-साधन की सामग्री प्राप्त होने पर भी आत्म-सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए सबसे पहले जिस वस्तु को प्राप्त करना है उसके कारण को ठीक समझ लो। बिना कारण समझे साधन भी निरर्थक हो जाते हैं। 0 इस शरीर के साथ सम्यग्दर्शन सहित संयम और चारित्र की जरूरत है। चारित्र धारण किये बिना और अन्तरंग बाह्य तप के साधन के बिना कर्म हटेगा नहीं । शारीरिक शक्ति केवल बाह्य शत्रु का नाश करती है, किन्तु अन्तरंग कषाय शत्रु का नाश करने में असमर्थ है। अगर इस शरीर के साथ संयम हो तो वह अन्तरंग व बाह्य शत्रु दोनों का नाश कर देती है। 0 शरीर और आत्मा में रहने वाले भेद को समझकर यह मूर्ख जीव अत्यन्त कठिन तप करके शरीर को सुखा देता है। परन्तु आत्मा में अनादिकाल से चिपके हुए कर्म का नाश करने की भावना उसमें नहीं होती । केवल बाह्य तप को ही कर्म की निर्जरा का कारण समझता है । आत्मा का भेद-भेदक ज्ञान और बहिरंग-अन्तरंग दोनों मिलकर तपस्या हो तो आत्मा में चिपका हुआ कर्म नष्ट हो जाता है। हे अज्ञानी जीव ! अनादिकाल से बाह्य वस्तु का भोगी होकर तू अनेक प्रकार के दुःख भोग रहा है। अब तो चेत । ५४ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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