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इस तरह तू जन्म-मरण कब तक करेगा । अपने मन में स्थिर होकर सोच तो।।
C अपने आत्मा में रत होकर यथार्थ रूप का अनुभव करो । यही सम्यक् श्रद्धान् है । आत्मा का जानना सम्यक् ज्ञान है। अपने आत्मा का आचरण करना, रागद्वेष में परिणत न होना, अपने आत्मा में रमण होना उसका नाम चारित्रं है। यही रत्नत्रय है। यही मोक्ष मार्ग है।
Oज्ञान की आराधना करने का या ज्ञान में मग्न होने का असली व उपयोगी फल यही है कि परोक्ष व अल्प श्रुतज्ञान हट कर सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान का लाभ हो । यह फल अविनश्वर है व आत्मा को पवित्र व सुखी बनाने का कारण होने से स्तुत्य है।
शास्त्रों का ज्ञान होने से वस्तुओं पर सच्चा प्रकाश पड़ता है और कर्म-कलंक जल जाते हैं । इसलिए शास्त्रज्ञान एक प्रकार की आग है । अग्नि में पड़ने से जैसे रत्न शुद्ध होकर चमकने लगता है वैसे ही निर्मोह हुए भव्य जीव शास्त्र-ज्ञान में मग्न होकर कर्मकालिमा को जला डालते हैं और निर्मल होकर कर्मों से छूटकर प्रकाशमान होते हैं।
3 हे निर्बुद्धि जीव ! अपने आत्मस्वरूप को पहचान। यदि तु बाह्य इन्द्रियजन्य विषय-भोग के मोह को त्याग कर अपने अन्दर आप ही रत होकर अपने को देखेगा तो तू ही परमात्मा बन जाएगा। स्वयं तू ही मोक्ष रूप है। इसलिए भावलिंगी बनकर आत्मस्वरूप का चिन्तन कर ।
0 आत्म-ज्ञान रहित तप करने वाले योगियों को उनकी पांचों इन्द्रिया पंचाग्नि के समान हैं और अध्यात्म सहित होकर तप करने वाले आत्मज्ञानी की पांचों इन्द्रियाँ पंचरत्न के समान हैं, ऐसा समझना चाहिए। आत्मज्ञान सहित तप करो। आत्मज्ञान रहित तप सदा दीर्घ संसार और दुःख का कारण बनता है । इससे तुझे संसार में अनेक दुःखों को सहन करना पड़ेगा ।
a अगर असली मोक्ष फल की इच्छा है तो तुझे लोकव्यवहार की वांछा छोड़नी ही पड़ेगी।
0 जो योगी व्यवहार से बाहर जाकर केवल अभेद एकरूप अपने आत्मा के स्वरूप में ठहर जाता है, उस योगी को स्वात्म ध्यान के बल से कोई अद्भुत परमानन्द प्राप्त होता है। यही आनन्द का अनुभव वीत रागमयी ध्यान की अग्नि है जो निरन्तर जलती हुई बहुत अधिक कर्मों के ईंधन को जलाती है।
0 सबसे पहले इन्द्रियजन्य विषयभोगादि पर-पदार्थ का ध्यान छोड़कर एकाग्रतापूर्वक अपने अन्दर ही आपको देख । बाहरी चिन्ता को रोक और निश्चिन्त होकर अपने मन की समस्त चिन्ताओं को छोड़कर अपने परम पद का ध्यान कर और निरंजन देव को देख।
तेरी आत्मा ही शिवरूप है। यह शिवरूप आत्मा अपने अन्दर ही है, ऐसा समझकर पर को हटा और स्वभाव में रत हो जा। शिव कल्याण का ही नाम है । अतः कल्याणरूपी, ज्ञान स्वभाव, निज शुद्धात्मा को जानो। उसके तो दर्शन अनुभव से जैसा सुख होता है, वैसा सुख परमात्मा को छोड़कर तीनों लोकों में भी नहीं है।
o जिस तरह गरुड़ का ध्यान करने से सर्प का विष उतर जाता है उसी तरह शुद्धात्मा का ध्यान करने से अनादिकाल से आत्मा के साथ लगा हुआ कर्मरूपी विष फौरन नष्ट हो जाता है और यह जीवात्मा शुद्ध परमात्मा बन जाता है ।
यदि तू राग और द्वेष दोनों का त्याग करेगा तो कर्म नाश होकर तुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी। रागद्वेष दोनों का त्याग करने से योगी जनों का कर्म नाश होकर उन्हें विशुद्ध निरंजन परमात्म पदवी प्राप्त होती है।
Oजो महात्मा जन्म-मरण से रहित, एक, उत्कृष्ट, शान्त और सब प्रकार के विशेषणों से रहित आत्मा को आत्मा के द्वारा जानकर उसी आत्मा में स्थिर रहता है वही अमृत अर्थात् मोक्ष के मार्ग में स्थित होता है। वहीं अरहन्त, तीनों लोकों का स्वामी, प्रभु एवं ईश्वर कहा जाता है। केवलज्ञान, केवलदर्शन, और अनन्त सुख-स्वरूप जो वह उत्कृष्ट तेज है, उसके जान लेने पर अन्य क्या नहीं जाना गया? उसके देख लेने पर अन्य क्या नहीं देखा गया? उसके सुन लेने पर अन्य क्या नहीं सुना गया ? अर्थात् एकमात्र उसके जान लेने पर सब कुछ जान लिया गया।
0 मोह से रहित, अपने आत्महित में लीन तथा उत्तम चरित्र से संयुक्त जो मुनि मोक्ष-प्राप्ति के लिए घर आदि को छोड़ कर तप करते हैं वे बहुत थोड़े हैं । फिर जो मुनि स्वयं तपश्चरण करते हुए अन्य मुनि के लिए भी शास्त्र आदि देकर उसकी सहायता करते हैं तो वे इस संसार में पूर्वोक्त मुनियों की अपेक्षा और भी दुर्लभ हैं।
0जीव द्रव्य स्वतः सिद्ध है। इसका आदि नहीं है। इसी प्रकार अन्त भी नहीं है । यह जीव अमूर्त है, ज्ञान, दर्शन, सुख,
अमृत-कण
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