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जो कुटुम्ब से छूटा तो नहीं छूटा, भाव से छूटा तो छूटा । जो साधु भाव से मुक्त हो गया उसको मुक्ति मिल गई। स्त्री, कुटुम्ब, मित्र आदि से मुक्त होने से उसको मुक्त नहीं कहा जा सकता। इसलिए ऐसा समझकर तू आभ्यतर वासना को छोड़ । भव्य जीव को केवल बहिरग से ही नहीं, अपितु द्रव्य और भाव दोनों से मुक्त होना चाहिए। मोक्ष की प्राप्ति तभी हो सकती है।
0 हे आत्मन् ! चलते समय, बोलते समय, सोते समय, खाते समय, व्यवहार करते समय या अन्य किसी हालत में क्यों न हो, प्रति दिन अपने से आपको देखो तथा चिन्तवन करो। इस प्रकार चिन्तवन करने से तुम्हारी कोई हानि नहीं है। इसके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति शीघ्र होगी । सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र, जो आत्मा का धर्म है, वही अपना स्वरूप है। जब तक उसकी शरण में नहीं जाओगे तब तक इस जीव की कोई रक्षा करने वाला नहीं है, सुख और शान्ति को देने वाला नहीं है।
० इन नश्वर वस्तुओं के लिए मनुष्य घोर प्रयत्न करता रहता है। फिर भी ये वस्तुए मनुष्य की सर्वदा सहचर नहीं होती। सर्वदा सहचर है तो एकमात्र धर्म ही है जो कभी भी साथ नहीं छोड़ता अर्थात् परलोक जाने के समय मनुष्यों का एकमात्र सखा धर्म ही है। अतः ज्ञानी जीव को धर्म से अलग कभी नहीं होना चाहिए। इस संसार में धर्म के सिवाय और किसी से भी सुख और शान्ति आज तक नहीं मिली।
0 जो सिद्ध ज्योति सूक्ष्म भी है, स्यूल भी है, शून्य भी है, परिपूर्ण भी है, उत्पाद-विनाशशाली है, नित्य भी है, सद्भावरूप भी है और अभावरूप भी है, एक भी है, अनेक भी है, एसो दृढ़ प्रतीति को प्राप्त हुई वह अमूर्तिक, चेतन, सुख स्वरूप सिद्ध ज्योति किसी बिरले ही योगी पुरुष के द्वारा देखी जाती है । मिथ्यात्व रागादिक के छोड़ने से निज शुद्धात्म द्रव्य के यथार्थ ज्ञान में जिनका चित्त परिणत हो गया है, ऐसे ज्ञानियों को शुद्धबुद्ध परम स्वभाव परमात्मा को छोड़ कर दूसरी कोई भी वस्तु सुन्दर नहीं दिखती। इसलिए उनका मन कभी विषय-वासना में नहीं रमता ।
0 कर्मों से मोक्ष तभी हो सकता है जब शरीर से ममता दूर हो । अपनी आत्मा के प्रति गाढ़ श्रद्धान् होकर, आत्मा को सांसारिक विषयों से उसी प्रकार खींच लिया जाये जिस प्रकार वृक्ष को जड़ समेत जमीन से उखाड़कर खींच लिया जाता है । जब तक तुम्हारे भावों में कर्म की जड़ मोह खीचने की शक्ति नहीं होगी तब तक बाह्य तपस्या से कर्म की निर्जरा न होगी और आत्मा का अनुभव नहीं होगा।
परीषहों की तीव्र वेदना से दुखित होकर जिस समय तू परम उपशम भावना करेगा उस समय आधे क्षण में तेरे समस्त अशुभ कर्म नष्ट हो जायेंगे।
0 जो पुरुष परीषह सुभटों से भयभीत होकर चारित्र रूपी संग्राम भूमि को छोड़कर भागते हैं वे ससार में हास्य के पात्र बनते हैं और अनेक प्रकार के दुःखों का उन्हें सामना करना पड़ता है । जो पुरुष संसार से भय करने वाले हैं और संसार के दुःखों को भोगना नहीं चाहते, उन्हें चाहिए कि वे चारित्र को प्राप्त होकर परीषहों के भय से विमुख न हों, किन्तु परीषहों रूपी सुभटों की कठिन मार झेलते हुए भी बढ़ते चले जाएं । अखण्ड अविनाशी मोक्ष राज्य को पाकर कीति का उपार्जन करें एवं समस्त प्रकार के दुःखों से छूटे।
Dहे योगी ! तू जिस शरीर को धारण किये हुए है, उस शरीर में यह आत्मा सुज्ञान, सुदर्शन, सुख और शक्ति रूप से युक्त है। यह आत्मा निराकार है, किन्तु साकार शरीर में रह रही है ।
यह मनुष्य-जीवन प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है । ज्ञानी लोग अज्ञान में फंस कर काल के एक क्षण को भी व्यर्थ नहीं करते । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप स्व-समय है और उससे भिन्न जितना भी पर है वह सब पर-समय है । ऐसा विचार करके कि स्व-समय ही मेरा आत्म-स्वरूप है जो उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता है वह भव्यज्ञानी जीव आत्म-तत्त्व को उपादेय समझ कर अपने को आप प्राप्त होता है।
0 जितना-जितना आप अपने अन्दर रत होकर भावना करेंगे उतना-उतना ही आत्म-सुख को प्राप्त होंगे। परवस्तु का आश्रय करने वाले कभी आत्म-सुख की प्राप्ति नहीं कर सकते । बाह्य विषय-वासना में फंसकर अपने आत्मा से वंचित रह कर तू अपने मनुष्य-जन्म को व्यर्थ ही मत खो।
0 जीव का स्वभाव ज्ञान है । जीवों को जितने भी दुःख, उद्वेग, क्षोभ होते दीखते हैं वे सब रागद्वेष के वश में होने से व अज्ञान के रहने से ही हैं। इसी प्रकार जहां-जहां पर रागद्वेष की कमी व ज्ञान की वृद्धि दीख पड़ती है वहां-वहां पर सुख-शान्ति व अनुद्वेग देखने में आता है । पर-वस्तु को त्यागे बिना सुख और शान्ति नहीं मिलती।
अमृत-कण
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