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अन्त में मोक्ष गति अर्थात् पंचम गति को प्राप्त कराने वाला है । जो भव्य जीव सदा सद्भक्ति से इस पंच परमेष्ठी के मंत्र का जप करत हैं, उनकी समस्त आपत्ति, संसार के संताप तथा पाप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
जो व्यक्ति उटते हुए, गिरते हुए, चलते हुए, पृथ्वी तल पर लेटे हुए, सोते हुए, हँसते हुए, वन-मार्ग में चलते, घर में रहते, कोई भी कार्य करते हुए, पग-पग पर सदा णमोकार मंत्र का स्मरण करता है, उसकी इच्छाएं पूर्ण होती हैं । णमोकार मंत्र जपने से युद्ध, समुद्र, गजराज, सर्प, सिंह, भयानक रोग, अग्नि, शत्रु, बन्धन (जेल) आदि का तथा चोर, दुष्ट ग्रह, राक्षस, चुडैल का भय दूर हो जाता है।
जो मनुष्य हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, पर-स्त्री-सेवन तथा लोकनिदित अन्य पाप कर्मों में तत्पर रहता हो वह भी यदि निरन्तर णमोकार मन्त्र का स्मरण करता रहे तो कुकर्मों से उपाजित अपनी नरक आदि दुर्गति को बदलकर मरने पर देव गति को प्राप्त करता है। यह णमोकार मन्त्र ऐसा महत्त्वशाली है जिसके प्रभाव से ऐसी कोई चीज नहीं जो शुभ न हो सके ।
मनुष्य को दुःख में, सुख में, भयानक स्थान में, मार्ग में, वन में, युद्ध में पग-पग पर पच नमस्कार मन्त्र का पाठ करना चाहिए।
हे आत्मन् ! इस मनुष्य भव से च्युत होने के बाद तुझे अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिए तुझे यह जो नररत्न मिला है उसे पाकर यदि तू विवेकपूर्वक अपने साधन में लगा रहेगा तो तुझे आगे आत्म-शान्ति देने वाली सामग्री अपने अन्दर ही प्राप्त होगी। इसलिए धर्म की आराधना कर जिससे आत्मा को दुःख देने वाला माया का फेर मिट जाए । जब तक तू काया-माया के झंझट में रहेगा, तब तक दुःखी ही रहेगा। मन को शुभ कार्य में लगाने का प्रयत्ल कर क्योंकि शुभ कार्य करने के लिए इस समय शुभ अवसर है । प्राप्त किये हुए नर-रत्न को वृथा गंवाना ठीक नहीं है । तेरे भाग्य के उदय से सत्य उपाय बतलाने वाले सदगुरु तुझे मिले हुए हैं । चिता आदि से छुटकारा पाने के लिए सद्गुरु तुझे जगा रहे हैं । इस लक्ष्य से उपयोगपूर्वक तू सद्गुरु का उपदेश सुन ।
तू पर-वस्तु के लिए जितना परिश्रम करता है और पेट भर अन्न भी नहीं खाता, यदि उतना श्रम अपने आत्म-साधन में थोड़ी देर तक करता रहे तो तेरा चिन्ता-जाल नष्ट हो जाएगा और तुझे आत्मस्वरूप को पहचान हो जाएगी। जब तक विषय-वासना का संग नहीं छूटेगा तब तक तुझे निजात्म-सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। सद्गुरु कहते हैं कि हे आत्मन् ! ठीक विचार कर ले कि मैं कौन हूं ? मेरा स्वरूप क्या है ? मेरा कर्तव्य क्या है ? इस मानव भव को प्राप्त करके मुझे क्या करना है ? क्यों कि ठीक विचार करने की बुद्धि इस मानव पर्याय में ही है।
0 आत्मिक गुणों में प्रेम रखने से व्याधि दूर भागती है । अनन्त गुण प्रकट होते हैं । इस प्रकार का विचार-विवेक जिस प्राणी के अन्दर नहीं आता, उसको आत्म-तत्त्व का ज्ञान कहां से आ सकता है ?
हे भव्य प्राणी ! तू अनादिकाल से परवस्तु के व्यासंग में पड़कर अपने आत्म-कल्याण से वंचित रहा । यदि तू सम्पूर्ण व्यासंग को छोड़कर अपने आत्म-गसंग में रत होकर अपने को अपने अन्दर अन्वेषण करेगा तो तुझे अपने अन्दर ही अपनी प्राप्ति होगी। हे जीव ! अब तू इस व्यासंग को छोड़कर अपने आपको देख । तुझे अपने अन्दर ही अखण्ड सुख और शान्ति मिलेगी।
जब तक यह भव्य मानव प्राणी भगवान् जिनेश्वर द्वारा कहे हुए तत्त्व का रुचिपूर्वक अभ्यास करके उस पर श्रद्धा नहीं रखता, तब तक यह संसार रूपी समुद्र को पार नहीं कर सकता।
हे जीव ! जब तक तेरी पीठ की हड्डी न झुके, जब तक तेरी आँखों की रोशनी न जाए, आँखों से अच्छी तरह दीखता रहे, हाथ में डंडा न आए, तब तक तू अपने अन्दर को ठीक समझ कर आत्म-चिन्तन कर। वृद्धावस्था में सामान्यत: चित्त की स्थिरता न होने के कारण तेरा शुद्धात्मा होना अत्यन्त कठिन है। इसलिए वृद्ध अवस्था प्राप्त करने से पहले आत्म-स्वरूप का चिन्तन करना तेरे लिए अत्यन्त उचित है।
0 इस शरीर में स्थित पंचेन्द्रियों की विषय-वासनाओं में आसक्त होकर अनन्त दुःख उठाते हुए संसार दीर्घ काल से परिभ्रमण कर रहा है। इसलिए हे आत्मन् ! तेरे शरीर में जब तक वृद्धावस्था ने प्रवेश नहीं किया तब तक तुझे अपना आत्महित कर लेना योग्य है । तू एकाग्र होकर अपने अन्दर विचार कर । तेरे अन्दर न पर-वस्तु है, न राग है, न मोह है, न आत्मा में आत्मा से भिन्न पर-विकार है। जिस शरीर के लिए तू अनादि काल से जन्म-मरण करता आ रहा है, यदि विचार करके देखा जाए तो यह शरीर क्षणिक और अशाश्वत है।
0 मनुष्य का जीवन चिन्ता और दुःखों का जीवन है। प्रत्येक मनुष्य दिन-रात दुःखों का अनुभव करता है। उन दुःखों . की न कोई सीमा है, न कोई अन्त है।
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ
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