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________________ इसके अतिरिक्त लोभ का विष उतारने के लिए अपनी इच्छाओं को संयमित-परिमित करना चाहिए । अपनी आवश्यकताओं को कम करके सादे रहन-सहन का अभ्यास करना चाहिए तथा अपने परिग्रह (मकान, धन, वस्त्र, आभूषण आदि) की अपनी आवश्यकता के अनुसार सीमा कर लेनी चाहिए। 'मैं इतना संचय करूगा, इससे अधिक न करूंगा।'-ऐसा परिमाण कर लेने पर भी लोभ का विष दूर हो जाता है। इस तरह लोभ से बचने का उपाय 'त्याग' करना है । ग्रहण या संचय करने मे लोभवृत्ति कम नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। भय श्राप० आशाधरजी ने संसारी जीवों के विषय में लिखते हुए 'सागरधर्मामृत' में एक वाक्य-खण्ड दिया है 'चतुःसंज्ञाज्वरातराःसंसारी जीव आहार, परिग्रह, भय और मैथुन-इन चार संज्ञाओं रूपी ज्वर से पीड़ित है अर्थात् ये चारों संज्ञाएं प्रत्येक जीव को पीडा प्रदान किया करती हैं। यह बात प्रत्यक्ष देखने में आ रही है। प्रत्येक जीव चाहे एकेन्द्रिय वक्ष आदि स्थावर और चाहे द्विन्द्रिय त्रस आदि हो, मनुष्य हो या पशु पक्षी या देव, वह आहार अवश्य करता है, क्योंकि इस भौतिक शरीर की प्राकृतिक बनावट इस तरह की है कि कुछ समय के अंतराल से (केवलज्ञानी के परम औदारिक शरीर के अतिरिक्त) सभी को भूख लगती है। उस भूख का उपशम करना प्रत्येक जीव के लिए अनिवार्य हो जाता है । उत्पन्न होते ही बच्चा सबसे पहले यदि कोई पदार्थ नाना है तो वह भोजन ही है। उसकी इच्छा को उसकी माता समझ ले, इसके लिये वह रोना प्रारम्भ कर देता है और पूर्वभव के संस्कार से दूध पीने आदि प्रक्रिया द्वारा अपनी भूख मिटाना उसे बिना किसी के सिखाये स्वयं आ जाता है। एकेन्द्रिय पेड़ भी अपनी जड़ों के दाम पश्वी से पानी और खाद खींच कर अपनी भूख शान्त किया करते हैं। उन्हें यदि खाद, पानी और अपनी भूख के योग्य नहीं मिलता तो वे मरनाकर. सख कर मर जाते हैं, जैसे बच्चों को भूख मिटाने के लिये भोजन न मिलने से उनकी मृत्यु हो जाती है। इस तरह प्रत्येक जीव को आहार संज्ञा प्राप्त होती है। अपने लिये भोजन आदि सामग्री एकत्र करने की आदत भी यब किसी की होती है। प्रत्येक जीव, मनुष्य, पशु-पक्षी अपने रहने के लिए मकान, घोंसला, बिल आदि स्थान अवश्य बनाते हैं और उस मकान में जीवनोपयोगी वस्तुएं भी एकत्र किया करते हैं । चूहों के विलों में बहुत-सा अनाज इकट्ठा रहता है । चींटियां भी रात-दिन भोजन इकट्ठा करती रहती हैं। प्रत्येक जीव को अपने शरीर से तो मोह ममता होती ही है, पर-पदार्थ से मोह ममता का नाम ही परिग्रह है। इस तरह समस्त जीव परिग्रह संज्ञा के चक्कर में भी पड़े हुए हैं। एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के जीव, सम्मूर्छन जीव तथा नरक निवासी तो सभी केवल नपुंसक लिंग वाले होते हैं, देवों में स्त्री-वेद वेद ही है, नपुंसक वेद उनमें नहीं होता। शेष सभी पशुओं तथा मनुष्यों में स्त्री, पुरुष, नपुंसक पाये जाते हैं। अपने-अपने लिंग के अनुसार सभी जीवों की कामवासना होती है। वेद की कामवासना फूस की अग्नि की तरह शीघ्र उत्पन्न होने वाली तथा शीघ्र शान्त होने वाली होती है । स्त्री-वेद की कामवासना कंडे ( उपले) की अग्नि के समान ऊपर से शान्त किन्तु भीतर से उग्र होती है और नपुंसक की कामवासना ईंटों के भट्टे के समान ऊपर प्रतीत न होकर भीतर उग्रता से धधकने वाली होती है। इस तरह विभिन्न संसारी जीवों को काम-वेदना हुआ करती है। विभिन्न दो प्राणियों का परस्पर काम-सेवन करना मैथुन संज्ञा है। यह निम्न श्रेणी के जीवों में अधिक और उच्च श्रेणी के जीवों में अल्पमात्रा में पाई जाती है । पशुओं में सिंह सबसे अधिक बलवान होता है अतः वह पशुओं का राजा कहलाता है। वह सिंह वर्ष में केवल एक बार सिंहनी से कामवासना करता है। उसी से सिंहनी गर्भवती हो जाती है। तदनन्तर दोनों पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहते हैं । गाय, भैस आदि के विषय में भी ऐसी ही बात है। १६ स्वर्ग से ऊपर के अहमिन्द्र देव १६ स्वर्गवासियों की अपेक्षा अधिक सुखी होते हैं किन्तु न वहाँ कोई देवी होती है, न वे कभी आयु भर किसी से मैथुन किया करते हैं । फिर पुवेद कर्म के कारण उनमें मैथुन संज्ञा का अस्तित्व माना गया है। कारण न मिलने से वह वहाँ पर कार्यकारी नहीं होती। इस तरह मैथुन संज्ञा भी संसार के प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है। चौथी संज्ञा 'भय' है । अन्य संज्ञाओं की तरह यह संज्ञा समस्त जीवों में होती है। इसी कारण निर्बल, छोटे-बड़े, स्थावर, जंगम, नर, पशू, नारकी, देव, सभी जीवों को सदा किसी न किसी तरह का भय बना रहता है। सिंह सबसे बलवान् पशु है किन्तु मृत्यु और अग्नि से वह भी डरता है । सरकस में रिंग मास्टर के चाबुक की फटकार के भय से उसी बलवान सिंह को अग्नि में से निकलना पड़ता है । मक्खियों के काटने के डर से वह अंधेरी गुफा में जाकर सोता है। मृत्यु-भय तो अहमिन्द्र को भी भीरु बना देता है । इस तरह भय संज्ञा से भी कोई जीव छूटा हुआ नहीं है। अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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