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भय के सात भेद हैं-१. इह लोक सम्बन्धी भय, २. परलोक सम्बन्धी भय, ३. मरण भय, ४. वेदना भय, ५. अरक्षा भय, ६. अगुप्ति भय ७. अकस्मात् भय ।
प्रत्येक जीव अपने वर्तमान भव में अनेक प्रकार के भयों से सदा भयभीत बना रहता है। पुत्र, स्त्री, मित्र आदि न छुट जायें, मेरा धन नष्ट न हो जाए, मेरी मान-प्रतिष्ठा मिट्टी में न मिल जाए, मेरा कोई अंग-भंग न हो जाए, मेरी पुत्री बहिन को वैध व्य न आ जाए, मेरी स्त्री-पुत्री आदि का अपमान न हो जाए, मेरे पुत्र की आजीविका छिन्न-भिन्न न हो जाए । मेरा मकान, जमीन आदि न छिन जाए, मेरी अपकीर्ति न फैल जाए, मेरा या मेरे परिवार का कोई अंग भंग न हो जाए, मेरा शरीर लकवा आदि से निष्क्रिय न बन जाए, मैं असहाय न हो जाऊं इत्यादि इस लोक-सम्बन्धी अनेक प्रकार के भय मनुष्य को सतत् सताते रहते हैं ।
परलोक में पता नहीं मुझे कैसा कुल मिलेगा?, कैसे घर में मेरा जन्म होगा?, कैसा मेरा परिवार होगा?, कैसा मेरा शरीर, रूप-रंग तथा अंगोपाग होंगे ?, पुत्र भार्या आज्ञाकारी होंगे या नहीं?, धन होगा या नहीं?, दीर्घायु होगी या नहीं ?, जीवन में सुख शान्ति हो सकेगी या नहीं ?, कहीं नरक में तो न जाना पड़ेगा?, कहीं पशुगति का शरीर तो न मिलेगा, कीड़े मकोड़ों की योनि में तो कहीं जन्म न लेना पड़ेगा, कहीं फिर निगोद भव में तो दुर्दशा में उठानी होगी? इत्यादि अनेक प्रकार से परभव के विषय में दुःखदायक अशान्तिजनक परिस्थितियों से भयभीत होना ‘परलोक' भय है।
____ संसारी जीव को और कोई भय हो या न हो किन्तु अपने मरने का भय तो प्रत्येक जीव को होता ही है। मरण से बचने के लिए यह जीव यथा-संभव सभी यत्न करता है । टट्टी का कीड़ा भी मृत्यु से उतना डरता है जितना कि देवों का अधिपति
अमेध्यमध्ये कीटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालये ।
समाना जीविताकांक्षा समं मृत्युभयं द्वयोः ॥ टट्टी में रहने वाले कीड़े तथा स्वर्ग में रहने वाले इन्द्र की जीवन की इच्छा और मृत्यु का भय एक समान है।
अपने आप को मृत्यु से बचाने के लिए मनुष्य या अन्य कोई जीव अपनी समस्त सम्पत्ति, यहाँ तक कि अपने परिवार, का त्याग करने के लिये तैयार हो जाता है ।
शरीर में जरा-सा कांटा चुभता है, उसकी पीड़ा भी कोई नहीं उठाना चाहता। जीवन में अनेक तरह की दुर्घटनाएं हो जाती हैं जिससे शरीर क्षत-विक्षत हो जाता है। उसकी भारी वेदना तो जीव स्वप्न में भी नहीं सहना चाहता। इसी कारण संसारी जीवों को सदा भय बना रहता है कि कहीं मुझे आंख, कान, नाक, शिर में पीड़ा न हो जाय, दांत, गले, छाती, पेट में किसी तरह की वेदना न हो , हाथ पैर आदि अंग-उपांग में कोई ऐसा भयानक रोग न हो जाए जिसके दर्द से मैं बेचैन हो जाऊं ? इत्यादि वेदना (शारीरिक पीड़ा) का भय जीव को सदा बना रहता है।
प्रत्येक जीव अपने जीवन की सुख-शान्ति बनाने के लिए रक्षा के अनेक साधन जुटाता है। फिर भी उसे भय बना रहता है कि कभी कोई आपत्ति मेरे ऊपर न आ जाए जिससे बचाने वाला कोई न हो । मेरे अनेक शत्र हैं, कहीं अकेले होने पर मुझे कोई मार पीट न दे । सोते समय रात में आकर कोई मेरा माल न उठा ले जाए । पापकर्म के उदय से कोई ऐसा दुःख न आ जाय जिससे कि छुटकारा न मिल सके । इस तरह अरक्षा भय से जीव भयभीत बने रहते हैं।
मनुष्य अपने परिवार, धन, सम्पत्ति आदि की रक्षा के लिये अच्छा मजबूत मकान बनाता है, दृढ़ किवाड़ फाटक लगाता है , मजबूत ताले लगाता है फिर भी उसे डर लगा रहता है कि कोई सेन्ध लगा कर, सीढ़ी लगाकर या कमन्द से मकान में न घुस आए । किसी तरह ताला न टूट जाए, तिजोरी खोलकर कोई माल न निकाल ले जाए। अपने माल को सुरक्षित रखने के लिए जो प्रबंध मैंने किए हैं वे पर्याप्त नहीं हैं-इत्यादि अगुप्ति भय जीव को सदा लगा रहता है।
मनुष्य पर बिना सोची-विचारी अनेक प्रकार की आपत्तियाँ आ जाती हैं। उनसे भी सब कोई डरता रहता है कि कहीं घर में आग न लग जाए, कहीं आते-जाते कोई मकान मेरे ऊपर न गिर पड़े, मोटर गाड़ी आदि की दुर्घटना में न फंस जाऊ, अचानक कोई ऐसी विपत्ति न आ खड़ी हो जिसमें मेरा सम्मान चला जाए। मैं मुख दिखाने योग्य न रहूं। इत्यादि अनेक प्रकार के अकस्मात् भय से यह जीव सदा भयभीत रहता है।
इस तरह इन सात प्रकार के भयों से संसारी जीव सदा भयभीत रहते हैं। किन्तु भयभीत वही होता है जिसका हृदय
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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