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________________ आखिर यह निर्णय किया कि राजा के खजाने में क्या कमी है, ऐसा अवसर भी मुझे कभी न मिल सकेगा। अतः खजांची से तीन करोड़ रुपये माँगूंगा जिससे जन्म भर के लिये मेरी दरिद्रता समाप्त हो जाये। फिर कभी किसी से कुछ न मांगना पड़े। वह खजांची के पास पहुंचा और उसके हाथ में राजा का पर्चा दिया। खजांची ने पर्चा पढ़कर ब्राह्मण से पूछा कि देवता ! कितनी रकम चाहिये ? ब्राह्मण ने कहा तीन करोड़ राजमुद्रा (रुपये)। खजांची ब्राह्मण की मांग सुनकर चकित रह गया। उसन्न राजा के पास समाचार भेजा कि ब्राह्मण तीन करोड़ रुपये मांगता है, सो क्या इतनी रकम इसे दे दी जाए? । राजा भी खजांची का समाचार सुनकर दंग रह गया। उसने ब्राह्मण को अपने पास बुर... पूछा-'माशत्रयस्य कार्य त्रिकोट्या नैव सिद्धयति' तेरी मांग तीन माशे सोने की थी सो अब वह तीन करोड़ रुपये तक पहुंच गई, क्या इतने भी काम हो जायेगा या नहीं? राजा की बात सुनकर ब्राह्मण को होश आया कि मैं लोभ के कारण कहाँ क, नहीं पहुच गया। उसने राजा को उत्तर दिया 'शृणु राजन् महाभाग ! लाभाल्लोभः प्रजायते'-हे राजन् ! धन के मिलने से लोभ बढ़ता जाता है। इसी कारण मैं तीन माशे सोने से तीन करोड़ रुपये पर जा पहुंचा। इसी प्रकार मनुष्य की तृष्णा निन्यानवें के चक्कर में पड़कर बढ़ती चली जाती है। इस लोभ तृष्णा का प्रयोग भोले अनभिज्ञ धर्मात्मा अपने धर्म-आचरण में भी करते हैं । श्री महावीर जी तीर्थ क्षेत्र की वन्दना करने वाले अधिकतर स्त्री-पुरुष अपनी सांसारिक इच्छाओं और कामनाओं का जाल भगवान् महावीर स्वामी के सामने भी फैला देते हैं। जो भगवान् महावीर पूर्ण वीतराग तथा संसार से मुक्त हैं उनके समक्ष राग-द्वेष, मोह-ममता आदि विकार दूर करने की भावना करनी चाहिये, सो ऐसा न करके कोई स्त्रीपरुष अपने घर में पुत्र की कामना करते हैं, कोई भगवान् से धन-सम्पत्ति मांगते हैं, कोई अपने पुत्र-पुत्री के विवाह हो जाने की प्रार्थना करते हैं; अपनी इन लोभमयी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिये सोना-चांदी के छत्र चढ़ाते हैं, मानो भगवान् महावीर छत्रों के लोभवश उनकी इच्छाएं पूर्ण कर जाएंगे। जिन भगवान् महावीर ने घर में रहते हुए भी सुन्दरी राजकन्या से विवाह करने के प्रस्ताव को ठुकरा कर ब्रह्मचर्य धारण किया था, वे भगवान् महावीर किसी के विवाह कराने और किसी के पुत्र उत्पन्न करने में क्या सहयोग या वरदान देंगे। जिन वीर प्रभु ने स्वयं राज्य वैभव का परित्याग करके निर्ग्रन्थ'-साधु पद स्वीकार किया, वे पूर्ण मुक्त भगवान् महावीर दूसरों को धन प्रदान कर संसार के माया जाल में क्यों डालेंगे ? खेद है कि जिस भगवान् की भक्ति-स्तुति से लोभ माया दूर होने की भावना करनी चाहिये उन वीतराग प्रभु से भी अज्ञानी व्यक्ति सांसारिक लोभ अंकुरित करने की कामना करते हैं। इसीलिए नीतिकार ने कहा है-'अर्थों दोषं न पश्यति' यानी-स्वार्थी पुरुष दोषों का विचार नहीं करता। छोटे-से लोभ को पूरा करने के लिये यत्न किया जाता है तो उसके पूर्ण होते ही उसके स्थान पर दूसरा बड़ा लोभ आ खड़ा होता है। जब वह पूर्ण होने को होता है तब उसकी जगह उससे भी बड़ा लोभ उत्पन्न हो जाता है। सारांश यह है कि यह लोभ रूपी दानव प्रारम्भ में छोटे आकार में दिखाई देता है परन्तु बढ़ते-बढ़ते लोकाकाश के बराबर हो जाता है, जिसको शांत करना असम्भव हो जाता है । अधिकांश व्यक्ति लोभ में अपने प्राण भी गंवा देते हैं। लोभ को दूर करने का सफल और सरल उपाय सन्तोष है। प्रत्येक मनुष्य को अपने गृहस्थाश्रम को चलाने के लिये न्याय, नीति और परिश्रम से धन के उपार्जन का यत्न तो अवश्य करना चाहिये परन्तु साथ ही यह भी निश्चय रखना चाहिए कि लाभ उतना ही होगा, जितना हमने शुभ कर्म कमाया होगा। यदि शुभ कर्म का उदय न हो तो व्यापार में लाभ नहीं होता। एक साथ एक-सा ही व्यापार बहुत-से मनुष्य करते हैं परन्तु जिसके शुभ कर्म का उदय नहीं होता उसको सफलता नहीं मिलती और जिसके शुभ कर्म का उदय होता है, उसको व्यापार में खूब लाभ होता है । इसलिए अल्प लाभ या अलाभ होने पर यह समझकर सन्तोष करना चाहिए कि हमने पूर्व जन्म में जितनी शुभ कर्म की कमाई की थी उतना ही मिलेगा, एक पाई भी उससे अधिक न मिल सकेगी। १. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय में जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह (ग्रन्थ) का परित्याग है, उसे निग्रन्थता समझना चाहिए। -जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (भाग २)-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, पृ० ६२० ___ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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