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________________ भाव एवं मनोविकार आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज श्रद्धा के दो रूप संसार में जीव अनेक प्रकार की आकुलताओं व्याकुलताओं से दुःखी है। वह अनेक तरह की चिन्ताओं से सदा चिन्तित रहता है । अनेक प्रकार के भय उसको भीरु बनाये रहते हैं। भूख-प्यास उसको सताती रहती है और जन्म-मरण की व्याधि उसका कभी पीछा नहीं छोड़ती । जैसे जन्म से अधे मनुष्य को किसी ऊबड़-खाबड़ भूमि में चलना पड़े तो उसे पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ती हैं, उसी तरह आत्म-ज्ञान से शून्य संसारी जीव को मोह के गहन अन्धकार में नरक, पशु आदि विविध योनियों में भटकना पड़ता है । जिस तरह कोल्हू को चलाने वाला बैल दिन भर में २० मील चल लेता है किन्तु रहता वहीं का वहीं है, वहां से १० गज भी आगे नहीं बढ़ पाता, उसी तरह संसारी जीव असंख्य योजनों की यात्रा कर चुका है परन्तु संसार के चक्र से छूट नहीं पाया, वहीं का वहीं खड़ा है। जैसे कोई अन्धा मनुष्य मीलों लम्बे-चौड़े एक परकोटे में भटक रहा है जिसमें कि केवल एक ही द्वार बाहर निकलने का बना हुआ है, वह बेचारा अन्धा दीवार के सहारे हाथों से टटोलता हुआ उस परकोटे का चक्कर लगाता है। चक्कर लगाते-लगाते जब वह द्वार पर आता है तब दुर्भाग्य से उसको कभी खुजली हो उठती है जिसको खुजाने के लिए चलता हुआ ज्यों ही हाथ उठाता है कि वह द्वार निकल जाता है और उसे फिर सारा चक्कर लगाना पड़ता है। कभी उसी द्वार के आने पर छाती में पीड़ा होने लगती है तब टटोलने वाला हाथ छाती पर जा लगता है और समीप आया हुआ द्वार छूट जाता है। उसे फिर सारा चक्कर लगाना पड़ता है। जब घूमते-घूमते सौभाग्य से द्वार पुनः पास में आता है तो दुर्भाग्य से उसकी धोती खुलने लगती है। चलते-चलते ज्यों ही टटोलने वाले हाथ से धोती को सम्भालता है कि द्वार फिर निकल जाता है। इस तरह जन्म भर चक्कर लगाते-लगाते बेचारा उस परकोटे से बाहर नहीं हो पाता। इसी तरह संसारी जीव को संसार रूपी बन्दीगृह में चक्कर लगाते-लगाते एक मनुष्य-भव ऐसा मिलता है जिसके द्वार से यह संसार के बन्दीघर से बाहर निकल सकता है किन्तु उस समय घर-परिवार, मित्र, परिकर, धन-संचय के मोह में आकर वह अपना समय बिता देता है। मनुष्य-भव गया कि संसाररूपी जेल से निकलने का द्वार भी इस जीव के हाथ से निकल गया । जब कभी सौभाग्य से मनुष्य का शरीर मिला तब फिर पुत्र-मोह, शत्रु-द्वेष, कन्या के जीवन की चिन्ता, दरिद्रता से मुक्ति आदि में फंसकर उस सुवर्ण अवसर से लाभ नहीं ले पाता। इस सांसारिक भ्रमण का मूल कारण 'मोह' है। मोह में आबद्ध होकर जीव विवेक-शून्य हो जाता है । जब विवेक कुछ कार्य नहीं करता तब अविवेक से यह जीव अपने आपको नहीं पहचान पाता, जड़ शरीर को ही आत्मा समझ बैठता है। कोई भी कार्य, वह चाहे लौकिक हो अथवा अलौकिक हो-श्रद्धा-ज्ञानयुक्त आचरण के बल पर सिद्ध होता है। किसी रोगी को यदि रोग से छुटकारा पाना है तो उसे वैद्य तथा औषधि पर दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिये कि इसके द्वारा मैं नीरोग हो जाऊँगा । उसे औषधि-सेवन का ज्ञान होना चाहिये कि अमुक औषधि पीने के लिये है और अमुक औषधि मालिश के लिए है। इसी के साथ औषधि का सेवन भी आवश्यक है । इन तीनों प्रक्रियाओं से रोगी रोग-मुक्त हो जाता है। संसार-भ्रमण या जन्म-मृत्यु के रोग से मुक्ति पाने के लिये भी जीव को इसी प्रक्रिया को ठीक तरह से अपनाना पड़ता है। ज्ञान और आचरण पर लगाम लगाने वाली श्रद्धा है । श्रद्धा के अनुसार ही ज्ञान, आचरण स्वयं चल पड़ते हैं। किसी मनुष्य के हृदय में यह श्रद्धा (विश्वास) घर कर जाए कि दूध मुझे हानि करता है तो दूध के विषय में उसकी विरोधी विचारधारा चल पड़ेगी। वह प्रत्येक तरह से दूध को दुःखदायक विचारने लगेगा और लाखों यत्न करने पर भी वह दूध पीना स्वीकार न करेगा। इसी तरह संसारी जीव की श्रद्धा अपने शरीर पर जमी हुई है। उसे विश्वास है कि यह अपनी ही एक चीज़ है, पराई नहीं है । सुख, दुःख, हर्ष, शोक, लाभ, हानि मुझे शरीर से ही प्राप्त होते हैं। एक क्षण भी शरीर के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता। अमृत-कण ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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