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________________ अपने आत्मा को समझाता है कि हे आत्मन् ! तुम अनेक जन्म में चोर, जार, जुगार तथा कूकर, सूकर आदि योनियों में तिर्यंच पापी व -अधर्मी आदि नीच पर्याय को धारण करके आये हो, तो कूकर- सूकर व चांडालादि कहने से दुःखी क्यों होते हो ? क्योंकि जीव इस प्रकार के कुवचन कहने से संक्लेशित होता है उसे पुनः चतुर्गति में पड़कर नाना प्रकार के दुःख उठाने पड़ते हैं । अतः जब हम सब उपरोक्त नीच उंच योनियों में जन्म ले चुके हैं तब हम शोक क्यों करें ? निन्दक लोगों को हमारे प्रति ऐसा समझना चाहिये कि वे हमारे भीतर के मैल को बिना रुपया-पैसा व साबुन के ही साफ कर रहे हैं । ऐसे उपकारियों के साथ यदि हम ईर्ष्या या द्वेष करें तो हमारे जैसा अधम और कौन होगा ? इस प्रकार क्षमावान् पुरुष अपनी आत्मा को समझाकर अपने क्षमा-भाव से च्युत नहीं होता । आज के युग में महात्मा गांधी ने केवल निःशस्त्र अर्थात् क्षमारूपी शस्त्र से भारत भूमि को स्वतंत्र करा दिया। जिन-जिन महान् ऋषि-मुनियों ने आत्म-सिद्ध कर लिया उन्होंने केवल क्षमारूपी शस्त्र से कर्म-वैरी को जीतकर अखंड मोक्षरूपी साम्राज्य को हस्तगत कर लिया । अगर मानव प्राणी सम्पूर्ण विश्व को हस्तगत करना चाहता है तो उसे वश में करने के लिये क्षमा मन्त्र ही एक महामन्त्र है अन्य कोई साधन नहीं। इससे दुर्जन भी सज्जन बन जाता है । इसलिये मानव प्राणी को अपने और पर हित के लिये क्षमा का साधन भी करते रहना चाहिये । नीतिकार ने भी कहा है कि जो धीर वीर पुरुष है वह क्षमा भाव से नहीं डिगता धीर वीर मनुष्य की प्रकृति या बुद्धि उत्पीड़ित होने पर भी किसी प्रकार से विकृत हो सकती है इस प्रकार की आशंका करना व्यर्थ है । अग्नि को कितना ही नीचे की ओर क्यों न दबाइये, उसकी लपट सदा ऊपर को ही जायगी। के प्रति ही दोड़ती है। कर्दाथतस्यापि हि धैय्यंवृत्तेषु द्ध विनाशो नहि शंकनीयोः । अधः कृतस्यापि तननपातो नाधः शिखा याति कदाचिदेव || ऐसे ही महापुरुषों की वृत्ति (भीतर का क्षमारूपी तेज) शत्रु से न डरकर शत्रु से दवाये जाने पर भी हमेशा दूसरों के उपकार क्रोधी क्या-क्या नहीं करता ? सब कुछ कर डालता है। क्रोधी सम्पूर्ण धर्म का लोप कर देता है । माता, पिता, स्त्री, पुत्र, `बालक, स्वामी, सेवक तथा अन्य मित्र, कुटुम्ब इत्यादि किसी को भी नहीं छोड़ता, सभी को मार डालता है। तीव्र क्रोधी स्वतः ही विष 'खाकर शस्त्र से या छुरी या चाकू इत्यादि से अपनी आत्म-हत्या कर लेने में पीछे नहीं हटता । पर्वतादि से नीचे गिरकर प्राण भी दे देता है । • अगर कोई अन्य मनुष्य उसको समझाने भी जाय तो उसका भी घात करता है। जिनकी क्रोध प्रकृति है वे मनुष्य किसी का उपकार, दया - या अन्य सेवा सुश्रूषा भी नहीं करते । क्रोध ऐसा है कि ये अग्नि के समान मनुष्य के भीतर से उत्पन्न होकर शरीर तक को पूरा जला देता है। बड़े-बड़े महान् तप से युक्त तपस्वियों को भी इस क्रोध ने नहीं छोड़ा है। जिसने क्रोध को जीता वह अपने कर्म मधुओं को जीतकर निर्वाण पद प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं । ५८ क्षमावान् पुरुष को पृथ्वी की उपमा दी गई है । जैसे पृथ्वी पहाड़, पत्थर, वृक्ष, नदी, सरोवर, मनुष्य, पशु-पक्षी इत्यादि का सम्पूर्ण भार अपने आप सह लेती है, उसी प्रकार क्षमावान् मनुष्य पृथ्वी के समान ऊँचे-नीचे लोगों के द्वारा होने वाले असह्य उपसर्ग, निन्दा, गाली, तिरस्कार इत्यादि को सहन करते हुए अपने क्षमा भाव को नहीं छोड़ता । शायद क्षमावान् पुरुष यह विचारता है कि मैंने पूर्व "भव में इसका कुछ अपकार किया है। उसी का यह बदला चुका रहा है । इसे शान्तिपूर्वक सह लेने से मेरे अशुभ कर्मों की निर्जरा होगी । फिर मैं क्रोध क्यों करूँ ? Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पंच www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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