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आचार्य देशभूषण जी
-कपूरचन्द्र जैन
सुदढ़ श्रद्धा नौका लेकर,
सम्यक् चारित की पतवार । बढ़े देशभषण निज पथ पर,
लिया ज्ञान दीपक उजियार ॥ त्याग दिया है राग-फाग को.
___ अब विराग के गाते गील। रहते अविचल मग्न ध्यान में,
सुनते चेतन का संगीत ॥ तोड़ा देह गेह से नाता,
दिया परिग्रह पोट उतार ॥ मीठा-सीठा चिकना रूखा,
तज शत्र-मित्र के द्वेष राग। प्रभुवर तुम से समता जागी,
शीतल हई मन की विषय आग ॥ हम जग दुखियों पर करुणा कर,
दो आशिष-उपदेश उदार ॥ हे रवि तेरे मुख से फूटी,
उपदेशों की किरणें दिव्य । गल गया सकल अज्ञान अंध
अरु खिले सकल अरविन्द भव्य । उर की कलिकाएँ विकच उठीं
फिर वसन्त का हुआ प्रसार ॥ विज्ञ देशभूषण हे मुनिवर
तुमने स्वरूप निज पहचाना । परदेश कहां निज देश कहां,
क्या लक्ष्य सभी तुमने जाना॥ तुमने प्राप्त किया है शिव मग,
पहुंचोगे भव सागर पार ॥ लुभा सका न तुमको ऋषिवर,
काम-वासनाओं का जल । बेध सका न तुम्हें कभी वह,
भौतिक बहरंगी धनुष चपल ।। उठ करके तप अग्नि शिखाएँ,
शीघ्र करेंगी कर्म क्षार ॥
शत-शत प्रणाम
-जिनेन्द्र कुमार जैन कागजी हे धर्म पुरुष ! श्रमण संस्कृति के उन्नत सुमेरु ! तुम्हारे चरण आस्था के प्रतोक ! पूजा के अर्घ्य से उन्हें प्रणाम ! हे श्रुत पुरुष ! जिनवाणी के भाष्यकार ! तुमने सुलभ कर दिया धर्म-ज्ञान तुम्हारे चरण रचना के प्रतीक ! जलगंध से उन्हें प्रणाम ! हे तीर्थोद्धारक ! रचना शिल्पी ! तुम्हारे पौरुष से प्रकट हुएउत्तुंग शिखर और मन्दिर ! तुम्हारे चरण निर्माण के प्रतीक ! अष्टमंगल द्रव्य से उन्हें प्रणाम ! हे धर्मचक्र ! प्रादर्श पदयात्री ! तुमने किया उपदेश सभी के निमित्त, परम करुणामय ! तुम शांति के प्रतीक ! तुम्हारे चरणों में शत-शत प्रणाम! विराजो लीलाधारी
- गुरप्रसाद कपूर तुम उदार ज्ञान के मधुर भार! मानव मोती मेंपिरे तार; कल्याण भावना के प्रतीक, हे देव-मनुज! शत-शत प्रणाम ! मानवता के नए क्षितिज राग-द्वेष के नित्य घाव से नहीं विक्षिप्त सत्य अहिंसा ज्ञान-प्रेम के वैभवशाली; हर रहे धरा के भौतिक ताप !! हैं खुले हृदय के द्वार विराजो लीलाधारी !!! 0
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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