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हे आलोक 5. पुरुष !
सम्यग्दर्शन के मूर्त रूप ! तुम्हें शत-यात प्रणाम ।
हे देव ! आचरण के सश्व रूप !
हे आलोक-पुरुष
-डॉ० रवेलचन्द आनन्द
१६
तुमने जग-जीवन के तम को आलोक किरणों से विदीर्ण कर जन-मन के नभ मण्डल को
प्रकाशवान कर दिया ; जड़ता का उच्छेदन कर जड़ से आकुल जिज्ञासा का समाधान कर विचारों की गति से, श्रावक जग को गतिवान कर दिया !
हे पुण्य-पुरुष
!
अनन्त चतुष्टय के सद्भाव तुम्हें शत-शत प्रणाम । आचार्यरल! मानव हितचिन्तक ! स्वनामधन्य ! सर्वज्ञ देव ! तुम वीतराग, हितोपदेशक ! पदार्थ का तुम्हें प्रत्यक्षज्ञान । हे तपी ! तप के अनुरागी ! तुम अरहन्त अनुपम महान सिद्ध-श्रेष्ठ, दिगम्बरख प्रतिमान ! युग-युग की साधना सफलीभूत तुम करुणा के सागर, त्रिभुवन ललाम ! हे पुरुष !
में
!
संस्कृति के शीतल सुधांशु तुम्हें शत-शत प्रणाम । हे अणुव्रतों के जीवन्त रूप ! तुमसे अपरिग्रह होता सार्थक तुम कालजयी, तुम कामजयी, हे संचरणशील दिग्विजयी ! बाधाएँ करतीं तुम्हें न विचलित । तुम हिमाद्रि के गौरीशंकर तुम जाह्नवी के पुण्य सलिल ! तुम्हारी ऊँचाइयों को छू पाना असम्भव तुम्हारा हर पग पावन तीर्थ-यल ।
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हे विश्व- पुरुष ! जिनवाणी के साहित्यकार ! तुम्हें शत-शत प्रणाम ।
हे पावनी वाणी के स्रष्टा ! धर्मामृत के हे उपदेशक !
तुम्हारी वाणी सदा कल्याणी शब्द-शिल्प के हे साचक !
तुमने उपलब्ध कराया, जो विस्मृत था,
अर्थ दिया उसे जो संश्लिष्ट था भाषाओं की दीवारों के आर-पार आवृत भाव जो मूल अभीष्ट था, वही तुम्हारी वाणी से उजागरित होकर
बना सभी का कण्ठ-हार
जिसने जोड़ा उत्तर-दक्षिण को
जो सेतु बना पूर्व-पश्चिम का जो बन गया राष्ट्र अखण्डता का प्रतीक ।
वाणी में जय गूंज उठी तुम्हारी तुम्हारी वाणी में चिन्तन की गरिमा गूंजी। तुमने जो लिखा, सोपी का मोती बन गया, तुमने जो कहा, बनी राष्ट्र की पूंजी । तुमने जो शब्दों की प्रतिमाएँ गढ़ी-संवारी हे वाणी- पुरुष ! उनके चरणों में मेरी आस्थाओं का वन्दन,
मेरे विश्वासों का प्रणाम !
तुम्हें शत-शत प्रणाम !
हे आलोक पुरुष ! सम्यक् दर्शन के मूर्त रूप ! तुम्हें शत-शत प्रणाम ।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य
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