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आम
तत्त्व के
धर्म-प्राण
धन्य धरा की
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हे भविष्य के द्रष्टा
- डॉ. सत्यप्रकाश बजरंग विश्वधर्म संस्कृति समाज का दीप जलाने वाले।
आदर्शों सिद्धान्तों को निज कार्यरूप में ढाले । दर्शन ज्ञान तत्त्व के ज्ञाता, हे मानव कल्याणी। संकल्पों में दिव्य हिमालय, धर्म-प्राण जिनवाणी॥
पाकर मृदुल स्पर्श तुम्हारा, धन्य धरा की माटी। क्षमा-दया, तप-त्याग. अहिंसा की पाली परिपाटी ॥ संत-हृदय निर्मल गंगा सम. सिद्ध साधना पाई।
विद्वानों की प्रथम-पंक्ति पाकर तुमको हर्षाई ॥ देशरत्न आचार्य देशभूषण सच्चे कर्म-योगी। तुमने सत्य-समागम द्वारा शुद्ध किये बहु भोगी ॥ अनासक्त योगी बनकर, निर्माण पंथ अपनाया । भारतीय भाषाओं को रचना से गले मिलाया ।।
तुम साहित्य, समाज, धर्म-धारा के पावन संगम । जन मानस मन हुआ उल्लसित सुने शब्द अत्युत्तम ।। ऋषि परम्परा के उन्नायक त्याग तपस्या साधी।
धर्म और अध्यात्म पंथ की हर मर्यादा बाँधी। प्रेम और सद्भाव-भावना का प्रकाश फैलाया। तुमने महावीर वाणी का सही अर्थ समझाया ॥ बिखरी साहित्यिक कड़ियों को निज प्रतिभा से जोड़ा। मानवता रथ चले निरन्तर रूढ़िवाद को तोड़ा ।।
व्यवधानों के आये पर्वत पिघल गये तप आगे। मानव-मानव मिले परस्पर द्वेष-भाव सब भागे । हर भाषा में उठा लेखनी सबको प्यार सिखाया।
'एक हृदय हो भारत जननी' का मदु मंत्र गुंजाया । हे भविष्य के द्रष्टा तुमने यूग को था पहिचाना। सात्विकता साहचर्य भाव का अनुपमेय व्रत ठाना ।। मूल प्रेरणा दे तीर्थों का जीर्णोद्धार कराया। सारे ही दुख पीकर पीड़ित मन को सुख पहुंचाया।
हे सजीव इतिहास, हमारे मठ-मंदिर उदारे । रात-दिवस गुजित जिनमें श्री वीरप्रभु जयकारे ॥ ज्ञान-तोर्थ कालेज पुस्तकालय जहाँ गये वहाँ खोले ।
धर्म-वाचनालय औषध के दिये रत्न अनमोले। अध्ययन बल से उपदेशों में मर्म अनेक बताये । भ्रम आवरण हटाकर तुमने जीवन श्रेष्ठ बनाये। सारे ही गुण लिख पाये, सामर्थ्य कहाँ है मेरी। तुम शीतल चन्दन से सुरभित, मैं चिन्ता की ढ़ेरी।।
देव तुम्हारे युगल चरण में अर्पित श्रद्धा-माला। ताकि पा सकं मैं भी इनसे श्रद्धा-ज्ञान उजाला !!
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पंथ
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