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क्षितिज से उभरा सूरज
- डॉ. सुरेशचन्द्र गुप्त
पूर्वजन्मों के संचित पुण्य जब भी छूते हैं शिखर कोई एक दिव्यात्मा पवित्र करती है धरा को !
वसन्त-सी मधुसिक्त
और व्याप्त बरगद-सी
उभरती है शून्य में
सिद्धान्त की छाया, घनसार-सी गन्धयुक्त पतझड़ से मुक्त
निष्काम काया !
उद्वेग नहीं होते शंख ध्वनित चिन्तन में
ध्वनियाँ उठाता सामंजस्य संगीत - सा कता नहीं कभी भी
विवश क्रीत-सा !
कहीं तो वैदिक ऋचा सा
शान्त होता मन कभी गंगा के जल में
डुबकी लगाते हैं वे, बुद्ध या महावीर अथवा, नानक और गांधी
कभी गुज़रे थे सभी
बावड़ी के किनारे से, आत्मचेता उन्होंने
दिशा दी उद्भ्रान्त मन को !
ऐसे ही सन्त हैं
आचार्य प्रवर देशभूषण समाज के शिरोमणि
सम्राट् प्रतीकों के जैसे गहन धुंध चीर प्रकटा हो सूरज भरने को प्राण ज्योति अद्भुत प्रशान्ति में !
रसवन्तिका
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हे सरस्वती पुत्र
-डॉ० उदयचन्द्र जैन
हे सरस्वती पुत्र !
तुम्हें शत-शत प्रणाम !!
अध्यात्म ज्ञान की नौका से
तुमने भव-जन को तारा है !
तुम हुए आत्म में लीन
सहज सौम्य दृष्टि से
जग की चिन्ता को
दिया शीघ्र ही मुक्तिबोध का नारा है !
तुम बने देश के भूषण
श्रमण संस्कृति के रथ पर
तुम आरूढ़ हुए ! सत्य-अहिंसा की दृष्टि को सूक्ष्मभाव से दर्शाया
तुमसे मानव को राह मिली सत्पथ को उसने अपनाया ! !
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