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________________ श्री ने मुझसे कहा था कि, "मैंने तुझे गोद ले लिया है। अपने पिता जी से पूछ ले जो सामने ही बैठे हैं !" उस समय मैं क्या उत्तर देता ! मेरी तो मानो मनोकामना ही पूरी हो गई थी। पिता जी को भी क्या आपत्ति होती । वे तो बचपन से ही महाराज जी की अद्भुत शक्ति और धर्म प्रभावना से श्रद्धावनत रहे हैं। मुझे लगता है कि अब मेरा शेष जीवन महाराज जी के 'मिशन' को पूरा करने में ही लगेगा। उनके श्री चरणों में मेरा बारम्बार भक्ति पूर्वक नमस्कार । राष्ट्रसन्त आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज विद्याविलासमनसो वृतिशील शिक्षा सत्यव्रता रहितमानमला पहारा: । संसारदुःखदलेन सुभूषिता ये पन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः ॥ यही संस्कृति सुरक्षित रह सकती है तथा वही समाज जीवित रह सकता है जिसमें निःस्पृह, परोपकारी, विद्वान् सन्त महात्मा विद्यमान हों। आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज ऐसे ही सच्चे सन्तों में हैं जिन पर समाज गर्व कर सकता है, राष्ट्र गर्व कर सकता है। जिन-धर्म का पालन करते हुए समस्त कषायों को समाप्त कर देने वाले आचार्यश्री न केवल सन्त ही हैं अपितु राष्ट्र एवं समाज में चेतना फेंकने वालों में अभी भी हैं। अपने जीवन में अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना कर आचार्यथी ने "तमसो मा ज्योतिर्गमय" के अनुसार अज्ञानान्धकार को दूर करने, ज्ञानप्रकाश फैलाने में जो योगदान दिया वह वस्तुतः अविस्मरणीय है । इसके अतिरिक्त औषधालय: आदि समाजकल्याण सम्बन्धी कार्यों को करने की प्रेरणा द्वारा आपने सामाजिक क्षेत्र में अपरिहार्य योगदान दिया है। इतना ही नहीं, अपितु ब्रिटिश काल में जहां एक ओर अन्य नेतागण स्वाधीनता का आन्दोलन चला रहे थे वहां दूसरी ओर यह निःस्पृह वीतराग सन्त अपने विमल उपदेशों द्वारा जनमानस को "आत्म स्वातंत्र्य" का उपदेश दे रहा था । जैन समाज के लिए तो आचार्यश्री विशेष रूप में श्रद्धाभाजन हैं क्योंकि आपने आचार्य परम्परा का पालन करते हुए अनेक प्राचीन शास्त्रों का उद्धार किया । "अहिंसा परमो धर्मः" के अनुसार अहिंसा को समाज में सुप्रतिष्ठित करने का पवित्र कार्य भी आपने किया है । ५१ वर्ष तक अहर्निश चलने वाली आपकी दिगम्बरी साधना के सामने कौन नतमस्तक नहीं होगा। इस प्रकार जैन समाज आपके जीवन से चिरकाल तक प्रेरणा प्राप्त करता रहेगा । १४४ डॉ० रघुवीर वेदालंकार आचार्यश्री उच्च कोटि के सन्त तो हैं ही, इसके साथ ही उनकी विद्वत्ता सोने में सुहागे का काम कर रही है। यह मणि-कांचन संयोग है कि उच्चकोटि के साधक होते हुए भी आप अनेक भाषाओं के विद्वान् हैं। स्वयं शताधिक ग्रन्थों का प्रणयन करके तथा अनेक भाषाओं में ग्रन्थों का अनुवाद करके आपने धार्मिक जगत् के साथ-साथ साहित्यिक जगत् पर भी जो उपकार किया है उस पर भला कौन गर्व नहीं करेगा ? कर्नाटक प्रान्त में जन्म लेकर उत्तर भारत को भी आपने अनुयायी बनाया यह आपकी विद्वत्ता एवं साधना का ही परिणाम है । इससे राष्ट्रीय चेतना अक्षुण्ण रहने में विशेष बल मिला है । सम्प्रति वृद्धावस्था ने आपके शरीर का तो स्पर्श कर लिया है किन्तु " नास्ति एषां यशः काये जरामरणजं भयम्" - आपके यशः शरीर का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वह अजर है, अमर है। वेद के अनुसार आप "भूयश्च शरदः शतात्' को चरितार्थ करते हैं । ऐसे राष्ट्रसन्त के प्रति देश को गर्व है । समस्त राष्ट्र उनके प्रति नतमस्तक है एवं चिरायु की कामना करता है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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