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________________ 4:30. बजे पाठ का समापन हुआ और सदलगा के जैन समाज ने भगवान् के अभिषेक के लिए नदी पर जाने के लिए धर्मयात्रा का आयोजन किया। शोभा यात्रा के लिए जैसे ही मैं पाठ की वेदी से उठकर बाहर आया तभी बड़ी जोर से वर्षा प्रारम्भ हो गई । मेरे हाथों में अभिषेक के लिए जो रिक्त कलश था वह वर्षा के जल से भर गया। सदलगा के सभी निवासियों का मन-मोर नाच उठा और उपस्थित जनसमुदाय तीर्थंकर भगवान् के अभिषेक के लिए नदी की ओर श्रद्धापूर्वक चल पड़ा । नदी के तट पर वर्षा के जल से परिपूरित कुम्भ से भगवान् का अभिषेक करके विशेष आनन्द आया। किन्तु आज भी मैं यह सोचता हूं कि वह अभिषेक एक व्यक्ति के द्वारा न होकर स्वयं इन्द्रदेव का भगवान् के चरणों में श्रद्धामय बन्दन था। सच तो यह है कि आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी का मन तीर्थंकर भगवान् के चरणों में अनुरक्त रहता है। आचार्यश्री जब भी भक्ति रस से प्लावित हो जाते हैं तब दैवी शक्तियां उनके मनोरथ को पूर्ण करने के लिए श्रद्धा के साथ इसी प्रकार के अवसर उपस्थित कर देती हैं। आचार्यश्री के सान्निध्य में मैंने ऐसी अनेक घटनाओं को घटित होते हुए अपनी आंखों से देखा है। अपने अनुभवों के आधार पर मैं यह निस्संकोच कह सकता हूं कि आप एक दिव्य पुरुष हैं और अपने कल्पनालोक से एक आध्यात्मिक वातावरण तैयार कर देते हैं। मैं उनके पावन चरणों में शत-शत वन्दना करता हूं। कृपा सिंधु, नर रूप हरि! श्री अनन्त कुमार जैन (जैन मैडिकोज, दिल्ली) धर्मध्वजा, तपमूर्ति, परम श्रद्धेय आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के तेजोमय व्यक्तित्व के प्रति मैं बाल्यावस्था से ही आस्थाशील रहा हूं। मुझे स्मरण है जब मैं पांच-छ: वर्ष का अबोध बालक था तब मुझे मेरी पूज्य माता जी महाराज जी के दर्शनार्थ ले गई थीं। उस समय आप लच्छूमल की धर्मशाला में धर्म-प्रवचन कर रहे थे। मैं बाल-सुलभ चंचलतावश उनके बिल्कुल निकट जाकर बैठ गया। तब तक मुझे 'चुन्न' नाम से बुलाया जाता था और महाराज जी ने मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देते हुए मेस नामकरण 'अनन्त' कर दिया था। यह भी एक संयोग था कि वर्षों के अन्तराल के बाद जब मेरा विवाह हुआ और मुझे पुत्र-प्राप्ति हुई तब उस नवागत बालक का नाम भी महाराजश्री ने ही किया था। उसका नाम उन्होंने 'आदीश' रखा था। महाराज जी के साथ निकट सम्पर्क में मैं सन् 1982 के बाद निरन्तर आता रहा है। मथुरा, आगरा, सोनगिरि, सागर, दमोह, कुंडलपुर, नागपुर आदि में महाराज जी जहाँ-जहाँ धर्म-यात्रा करते हुए गए वहीं पहुंच कर मैंने उनके दर्शन किए। मैंने प्रत्येक स्थान पर यह अनुभव किया कि महाराज जी के धर्म-वचन सुनने के लिए उस क्षेत्र के सभी समुदायों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। सोनगिरि सिद्धक्षेत्र की यात्रा के समय मैं तीन दिन तक महाराज जी के साथ रहा । वहाँ मार्ग में मुझे आचार्यश्री की तेजस्विता और अलौकिक शक्ति का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। एक विशाल अजगर न जाने किस ओर से रेंगता हुआ अचानक निकल आया और संघ के आगे चलने लगा । श्रावकों में घबराहट हो जाना स्वाभाविक था। किन्तु थोड़ी ही देर में वह मानो महाराज जी के दर्शन और आशीर्वाद ग्रहण करके बिना किसी का अहित किए लौट गया। कोथली में आजकल महाराज जी जनकल्याण और अध्यात्म-प्रतिष्ठा के अनेक रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। कुछ ही मास पहले भगवान् नेमिनाथ की मूर्ति के पंचकल्याणक के अवसर पर हमारा सम्पूर्ण परिवार वहां गया हुआ था। मेरे माता-पिता की महाराज श्री में अगाध आस्था है। इस पंचकल्याणक में मेरे माता-पिता को ही अवसर के अनुकूल पंचकल्याणक में माता-पिता बनने का गौरव दिया गया। मैंने भी उन धार्मिक क्रियाओं में भाग लिया। महाराज जी की किसी अज्ञात प्रेरणा व शक्ति से उस पंचकल्याणक के अवसर पर इतनी भीड़ एकत्रित हो जाती थी कि आश्चर्य होता था । कोथली में तो इतनी आबादी थी नहीं। भगवान् के पंचकल्याणक में यह भीड़ महाराज की अलौकिक सिद्धि की ओर ही संकेत करती है। कोथली में मैं अनेक बार महाराज जी के दर्शनार्थ गया हूं। अपने साथ फोटोग्राफर भी ले जाता रहा हूं जिससे महाराज जी के चित्र विभिन्न मुद्राओं के ले सकू। कई बार महाराज जी ने हंसते हुए कहा कि तुम जितना भी प्रयास करो, मेरा चित्र नहीं ले पाओगे ! और, मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जब-जब महाराज ने ऐसा कहा था तभी वह 'नेगेटिव' बिल्कुल खाली रह गया। उस पर किसी प्रकार की भी आकृति नहीं आ पाई ! इन सब घटनाओं का मैं प्रत्यक्ष साक्षी हूं और इसी कारण मुझे उनमें अनन्त और अज्ञात शक्ति के दर्शन करके शांति मिलती रही है । अपने जीवन का शेष भाग मैं कोथली में रह कर ही बिताना चाहता हूं। कोथली एक तीर्थ क्षेत्र के रूप में विकसित हो रहा है। वहां का प्राकृतिक वातावरण भव्य है और सबसे बड़ी बात यह है कि वह महाराजश्री की जन्मभूमि है। मुझे लगता है कि मुझे कोथली में ही सच्ची शांति मिल सकेगी। इधर कुछ समय पूर्व एक दिन अनायास ही महाराज कालजयी व्यक्तित्व १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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