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________________ 'सदलगा' (कर्नाटक) चातुर्मास, १९८६ के सन्दर्भ में जनमानस का स्वर सदगुरु महिमा अपार श्री आलगूर बी० डी. सदलगा सच्चा साई गुरु गोसाई राह बताई । जिससे सकल भरमना मिटी। डोरी जनम-मरण की टूटी । कोठड़ी करम को फूटी॥ महान तपोनिधि अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, राष्ट्र संत, योगेंद्र चूडामणि, भारतगौरव, आचार्यरत्न श्री १०८ देशभूषण मुनि महाराज जी हमारे परम गुरु परमात्मा हैं क्योंकि वे हमारे भ्रम को मिटाकर, कर्मराशि को नाश करने का तथा जन्म-मरण रूपी चक्र से छुटकारा पाने का मार्ग बताकर समस्त जीवराशि का कल्याण चाहने वाले सच्चे गुरु हैं । 'शरीर रोगमया, संसार दुखमया' इसे सब लोग जानते और मानते भी हैं। हमारा शरीर कई प्रकार के रोगों का शिकार बनकर पीड़ा देता ही रहता है । संसार में तो सदा इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग का दुःसह दुःख भोगना ही पड़ता है । इसलिए हमारे गुरुवर्य सदा इन सभी दुःखों से मुक्त होने का मार्ग ही बताते रहते हैं। इसलिए आप हमारे सद्गुरु हैं। कहा भी है जो कोणी ज्ञानबोधी । समूल अविद्या छेदी। इंद्रिय-दमन प्रतिपादी। तो सद्गुरु जाणावा ॥ सदगुरु की कसौटी पर हमारे आचार्यश्री सोलहों आने खरे उतरते हैं। आप भोगविजयी, इंद्रियजयी, सम्यग्ज्ञानी, चारित्र के धनी, योगेंद्र चूडामणि हैं। विषयोन्मुख से ईश्वरोन्मुख करनेवाले एवं असार संसार से विरक्त करके सारभूत सारस्वतलोक का सन्मार्ग दिखानेवाले मुनिपुगव तथा ज्ञानभास्कर हैं, जो अज्ञानी संसारी जीवों को रत्नत्रय धर्म का बोध करके उन में सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रज्वलित कर उनके आत्मकल्याण हेतु नित्य परिश्रम करते रहते हैं । सबको संयम की महिमा बताते हैं, जिससे संसार का बंधन टूटता है । ऐसे सन्मार्गदर्शी, महान् विभूति-पुरुष एवं युगपुरुष हमारे परम गुरु आचार्यश्री हैं। सदलगा में आचार्यश्री का महिमानगरी सदलगा ग्राम कर्नाटक प्रांत के बेलगाम जिले के ठीक उत्तरी भाग में बहनेवाली पावन दूधगंगा नदी के किनारेवाली उपजाऊ समतल भूमि के बीच में बसा हुआ है। आज तक इस नगरी से कुल १८ साधु-साध्वी हुए हैं, जिनमें गुरुवर्य विद्यासागरजी महाराज अग्रमान्य हैं। आपकी विरक्ति के प्रेरक गुरु आचार्य देशभूषण मुनि महाराज जी ही हैं। यह स्थान चारित्रचक्रबर्ती शांतिसागरजी की तथा गुरुवर्य देशभूषणजी की तपोभूमि तथा धार्मिक क्रांति का केन्द्र है। यहां के अधिकांश लोग कृषक हैं । वैसे तो सभी भद्रपरिणामी हैं । दुर्भाग्य से यहां के लोग लंबे अरसे से मुनिश्री के चातुर्मास से और सुदीर्घ काल तक प्रवचनामृत पान करने से वचित थे पर इस साल बह सौभाग्य उदित हुआ है। आचार्य जी की महिमा अपार है अज्ञानतिमिरांधानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्ष रुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ __ सुवर्ण में सुगन्ध-सदलगा ग्राम में रत्नत्रय स्वरूपी तीन मंदिर हैं जिनमे भ० वृषभदेव का अतिशय मंदिर भी एक है। इस तरह मंदिर होते हुए भी कई सालों से यहां जनजागृति और धर्मचेतना सप्तावस्था को प्राप्त हुई थी। महाराज जी के धर्म भेरी नाद से जन जागृति तथा धर्मचेतना के उषाकाल का आगमन हुआ जिसके फलस्वरूप शिखर बस्ति के प्रांगण में विशाल, भव्य, मानस्तंभ का निर्माण हुआ तथा आपके मार्गदर्शन और नेतृत्व में २२-५-१६८६ के दिन पंचकल्याणक महोत्सव भी संपन्न हुआ। इस शुभ अवसर पर लाखों लोगों को आचार्यश्री की वाणी का और धार्मिक विधि-विधान और शोभायात्रा का अखंड अनुभव हुआ। इसके साथ ही साथ करीब एक सौ साल के बाद होनेवाले इस महोत्सव के अविस्मरणीय इतिहास का निर्माण हुआ। वाणी की महिमा-आचार्यजी के प्रेरणा सरित् सागर में अनगिनत लोग नित्य स्नान करके अपने को पुनीत मानते हैं। लगातार दो-चार साल के दुर्भिक्ष से कंगाल जनता आग उगलती धूप और विषम गर्मी से भयभीत थी। सभी पंचकल्याणक में पानी की व्यवस्था करने का उपाय ढूढ रहे थे। इस मंगल महोत्सव की प्रगति देखकर और मार्गदर्शन करने के लिए आप दो-चार दिन पहले कालजयी व्यक्तित्व १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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