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________________ विश्व विभूति पूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज विश्व सन्तों की श्रेणी में महान विभूति हैं। उनके श्रीचरणों में बैठकर मैंने अनुभव किया है कि वे संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त हैं । शरीरधारी होते हुए भी अशरीरी हैं। दिव्य ज्योति से अनुप्राणित हैं । जैन धर्म एवं साधना को उन्होंने सहज जीवन पद्धति के रूप में अपनाया है । उनका उदार हृदय केवल विश्व मानव के लिए ही नहीं वरन् मानवेतर प्राणियों के लिए भी करुणाशील और समर्पित है। साहित्य साधना और रचनात्मक कार्यों में निरन्तर तल्लीन रहने वाले महाराजश्री की मैं वन्दना करता हूं और भगवान् श्री जिनेन्द्र देव से उनके दीर्घ आयुष्य की कामना करता हूं जिससे सन्तप्त मानवता को उनसे प्रेरणा व दिशा मिलती रहे। आरा (बिहार) में महाराज का लेखन कार्य श्री सुरेन्द्रकुमार जैन जौहरी किनारी बाजार, दिल्ली आरा के लिए यह अत्यन्त गौरव की बात रही है कि इस स्थान पर मुनिराज के दो चातुर्मास हुए थे। बड़ो भारी धार्मिक प्रभावना उनके कारण आरा नगर में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण बिहार प्रांत में हुई थी । आरा से ही ससंघ उन्होंने सभी क्षेत्रों की वन्दना की थी तथा सभी नगरों में पदार्पण कर उन्हें पवित्र किया था। ऐसे बहुत ही कम त्यागी या मुनि आरा आते हैं जो श्री जैन सिद्धान्त भवन के विशाल ग्रन्थागार में बैठकर अध्ययन, मनन, चिंतन के अतिरिक्त लेखन भी करें । मुनिराज श्री देशभूषण जी महाराज ने अपने चातुर्मासों के दौरान दक्षिण भारतीय हस्तलिखित ग्रन्थों के अनुवाद किये तथा स्थानीय चित्रकारों से जैनचित्र तैयार कराए उनके द्वारा लिखित कई ग्रन्थों का प्रकाशन इस स्थान से हुआ। जिस समय मुनिराज नगर में निकलते थे उस समय जैन अजैन भक्तों की बहुत बड़ी भीड़ इनके साथ चलती थी तथा इनके उपदेशों में भी सभी एक समान भक्तिभाव से शामिल होते थे । महाराजश्री का अभिनन्दन कर जैन समाज स्वयं अपने ही गौरव का सम्वर्द्धन करेगी। मैं इस शुभ अवसर पर अपनी सादर वन्दना आचार्यश्री को अर्पित करता हू । ] अद्भुत स्मृति के धनी श्री सुबोध कुमार जैन जनसिद्धान्त भवन, आरा Jain Education International श्री दरोगामल जैन पंच प्राचीन श्री अग्रवाल दिगम्बर जैन पंचायत (पंजीकृत), दिल्ली परमपूज्य आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज का जयपुर के चूलगिरि क्षेत्र में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराने एवं बुन्देलखंड की धर्मयात्रा के निमित्त लगभग सन् १९८१ में जयपुर पधारना हुआ था। में विगत वर्षों में आचार्यश्री की धर्मप्रभावना का साक्षी रहा हूं। अतः बद्धाभिभूत होकर उनके दर्शन के निर्मित में राजस्थान की राजधानी जयपुर भी गया। वहाँ के एक स्थानीय मन्दिर में मुझे आचार्यश्री के पावन चरणों के स्पर्श का पुण्य अवसर मिला। एक धर्मप्रेमी श्रावक ने इस अवसर पर मेरा परिचय जानना चाहा और मुझसे पूछा कि मैं कहाँ से आया हूं। मैंने उत्तर दिया कि दिल्ली से । मेरे द्वारा उत्तर दिये जाने से पूर्व ही आचार्य महाराज के पावन मुखारविन्द से अपना नाम सुनकर मैं विस्मय में पड़ गया और साथ ही गद्गद् भी हुआ । आचार्यश्री की वृद्धावस्था और रुग्ण दशा को देखते हुए मुझ े स्वप्न में भी यह अनुमान नहीं था कि महाराजश्री लगभग दस वर्ष के लम्बे अन्तराल के बाद भी भेंट होने पर अनायास मुझ े पहचान लेंगे । वह क्षण मेरे जीवन का अविस्मरणीय स्वर्णिम क्षण था जब दिगम्बर जैन धर्म के आदर्श तपस्वी ने आत्मीयतापूर्वक मुझे इस प्रकार आशीर्वाद दिया हो । शास्त्रकारों का कथन है कि संघ के पालन के लिए आचार्यों में चेतना भाव होना चाहिए। आचार्यश्री के इस चैतन्य भाव को देखकर उनके प्रति मेरे मन का श्रद्धा भाव और भी प्रगाढ़ होता चला गया। मैं समझ गया कि आचार्यश्री की स्मृति अद्भुत है । यही कारण है कि आप जिस धर्मग्रन्थ का स्वाध्याय कर लेते हैं वह उन्हें सदैव के लिए स्मरण हो जाता है । उनकी साधना के ५१ वर्ष पूर्ण हो जाने पर में उनके चरणों में श्रद्धावनत होकर कोटि-कोटि नमोस्तु निवेदित करता हूँ। O १३० आचार्यरन भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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