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________________ सचल तीर्थ श्री सुमतिचन्द्र शास्त्री (भूतपूर्व अध्यक्ष, नगरपालिका, मुरैना, म० प्र०) परमपूज्य, चारित्रचक्रवर्ती, महातपोनिधि आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने दिगम्बरत्व का मूर्तिमन्त प्रचार-प्रसार और वीतरागता की ज्योति प्रज्वलित करने हेतु अनेक दिगम्बर मुनि दीक्षित किये, जिनमें आचार्यश्री देशभूषण जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस भौतिक युग में भौतिकता से ओतप्रोत राजनेताओं को अध्यात्म और धर्म की ओर आकर्षित किया है तो वह देशभूषण जी महाराज ने और उनके 'अलभ्य कोहिनूर हीरा' तुल्य प्रमुख शिष्य एलाचार्य विद्यानन्द जी महाराज ने । आचार्य देशभूषण महाराज तो एतदर्थ 'राजर्षि' ही कहलाने लगे क्योंकि देश की राजधानी दिल्ली में आपने अनेक चातुर्मास सम्पन्न करके इसे देश की 'आध्यात्मिक राजधानी' भी बना दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, राष्ट्रपति राधाकृष्णन्, कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा, प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी आदि शीर्षस्थ नेता आपकी उपदेश-सभाओं में आकर आशीर्वाद ग्रहण करते रहे हैं। आचार्य देशभूषण जी स्वयं में एक चलते-फिरते 'तीर्थराज' ही हैं। जहां वे विराजमान होते हैं, जहां उनका चातुर्मास होता है, वहां एक तीर्थ ही बन जाता है । इसके अतिरिक्त जहाँ भी वे उपयुक्त स्थान, धर्मानुकूल वातावरण और जन-सहयोग देखते हैं वहां भव्य नबिम्बों की प्रतिष्ठा करके एक नये तीर्थ का निर्माण ही कर देते हैं, जो थोड़े ही समय में दर्शनीय और शांतिप्रदायक बन जाता है। सुप्रसिद्ध अयोध्या तीर्थ में जैन समाज के लिए एक और भव्य तीर्य का निर्माण, जयपुर स्थित खानिया जी में विभिन्न जिनालयों की संरचना और कोथली के सर्वथा उपेक्षित क्षेत्र में भव्य तीर्थ का निर्माण कार्य इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। साथ ही, आचार्य देशभूषण जी चलती-फिरती जिनवाणी' हैं । मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मलयालम, हिन्दी, गुजराती पर उनका अधिकार है और इन भाषाओं से हिन्दी में उन्होंने शताधिक ग्रन्थों का अनुवाद कर जिन-साहित्य की श्रीवृद्धि की है । आपके चरणों में मेरा भक्तिपूर्वक प्रणति-निवेदन है । शत-शत वन्दन डॉ० प्रेमचन्द राँवका भारतीय श्रमण संस्कृति के उन्नयन में श्रमण परम्परा में-प्रातःवन्दनीय चारित्र-चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्ति सागर जी महाराज श्री के पश्चात् आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज का ऐतिहासिक योगदान उल्लेखनीय है। वर्तमान दिगम्बर साधुओं में वे शीर्षस्थ हैं आपकी सतत आत्मसाधना, त्याग, तपस्या, साहित्य तथा जनकल्याण की भावना किसे आकर्षित एवं वन्दनीय नहीं करेगी। आचार्यश्री के चरणारविन्दों में नतमस्तक होने का सौभाग्य मुझे जयपुर में अनेकशः मिला है। उनके महान् एवं गम्भीर व्यक्तित्व में भारतीय श्रमण परम्परा के अद्भुत तेजोमय दर्शन होते हैं। वे उत्तर और दक्षिण की आध्यात्मिक संस्कृति के समन्वय के परिपालक एवं परिपोषक हैं । विश्वविश्रुत, आत्मसाधनारत, विश्वधर्म के उद्घोषक एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी जैसे आधाररूप सन्तों के गुरु, अतः गुरुणांगुरु हैं। आचार्यश्री की गणना इस युग के उच्चकोटि के सन्त-महापुरुषों में की जाती है। सामान्य जन से लेकर राष्ट्रपति तक उनके चरणों में नतमस्तक होकर अपना जीवन कृतार्थ मानते हैं। वे वस्तुत: युगपुरुष और देश के भूषण स्वरूप हैं। उनमें उच्चकोटि के सन्तत्व और अध्यात्म के दर्शन होते हैं । प्राणि मात्र का कल्याण और सर्वधर्म समभाव उनका चिरस्थायी सन्देश है। उनका समग्र जीवन उच्चतम त्याग, तपस्या, तपोधन और तेजोमय आभा का अनुपम आदर्श है । वे अपने आप में एक ऐसी साधु-संस्था हैं, जहां से प्रत्येक प्राणी अध्यात्म की शिक्षा ग्रहण कर आत्मज्ञान के मार्ग में प्रवृत्त होता है। ऐसे स्व-पर-हितैषी प्रातःस्मरणीय महान् अध्यात्म की विभूति के पावन व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जनसाधारण में स्थायी रूपेण अनुकरणीय हेतु अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन एक शोभन प्रयास है। तदर्थ आपको साधुवाद ! आचार्यश्री के चरणों में सद्दर्शन बोध चरण पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण, उन देव परम आगम गुरु को शत-शत वन्दन, शत-शत वन्दन । कालजयी व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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