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वन्दनीय पंचक
पं० बलभद्रजैन
., अनेक शताब्दियों की अन्धकारपूर्ण रात्रि के पश्चात् बीसवी सदी सूर्योदय लेकर आयी। इस सदी को अनेक तेजस्वी जैनाचार्यों को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इस सौभाग्य का प्रारम्भ चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी के उदय से हुआ।
___यह प्रभाव-सूर्य अपनी गति से गमन करता हुआ निरन्तर प्रकाश विस्तार करता जा रहा है। यह आकाश में ऊँचा-ऊँचा उठता हुआ आचार्य पायसागर जी, आचार्य जयकीर्ति जी, आचार्य वीरसागर जी, आचार्य शिव सागर जी, आचार्य महावीर कीति जी आदि वीथियों को पार करके उस केन्द्र-बिन्दु पर पहुँच गया है, जहाँ कभी इतिहास ने अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के काल को देखा था। यह केन्द्र बिन्दु हैं आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी । इतिहास के एक सिरे पर श्रुतकेवली भद्रबाहु हैं और दूसरे सिरे पर हैं आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी। दोनों सिरों के मध्य सम्पूर्ण जैन इतिहास सुरक्षित है।
आचार्यरत्न देशभूषण जी मजबूत कदमों से पूर्वाचार्यों के पथ पर जीवन भर चलते रहे हैं । अपने गुरुओं के समान वे भी कर्नाटक के हैं। किन्तु यह उनके जन्म-स्थान की साधारण पहचान मात्र है। उनका तेजस्वी व्यक्तित्व क्षेत्र, काल, राष्ट्र और सम्प्रदाय की सीमाओं से अतीत है। उन्होंने समस्त भारत में कई बार पद-यात्रा करके जहाँ असंख्य लोगों को धर्म-मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है, वहाँ समस्त देश में भावनात्मक एकता को मजबूत किया है। उन्होंने अनेक शास्त्रों की रचना की है, टीका की है, किन्तु उन्होंने कन्नड़, मराठी, तमिल, गुजराती के अनेक ग्रन्थों की हिन्दी टीका करके विभिन्न भाषाभाषियों को भावनात्मक एकता के सूत्र में आबद्ध किया है। यों तो मन्दिर और मूर्तियाँ बहुत बनी, बन भी रही हैं, किन्तु उन्होंने विशाल मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण कराया और वे स्थान तीर्थ बन गये। जयपुर का खानिया, कोथली, कोल्हापुर आदि इसके उदाहरण हैं। इनके दीक्षित शिष्यों की संख्या शायद शतक को पार कर चुकी है, किन्तु उन्होंने समाज को एक ऐसा शिष्य प्रदान किया है, जिसने जैन शासन की महान् प्रभावना करके एक नये इतिहास का निर्माण किया है । वे शिष्य हैं एलाचार्य मुनि विद्यानन्द जी।
इतिहास ने गुरु-शिष्यों का एक चतुष्क ढाई हजार वर्ष पूर्व देखा था। वह चतुष्क लोकोत्तर था। इस चतुष्क की रचना महावीर, इन्द्रभूति, सुधर्मा स्वामी और जम्बूकुमार से हुई थी। उसके साढ़े बारह सौ वर्ष पश्चात् गुरु-शिष्यों को एक चतुष्क हुआ । वह चतुष्क महनीय था । इस चतुष्क में एलाचार्य, वीरसेन, जिन सेन और गुणभद्र हुए। इनके लगभग साढ़े बारह सौ वर्ष बाद गुरु-शिष्यों का एक पंचक हुआ। यह पंचक वन्दनीय है। इस पंचक में शान्तिसागर जी, पायसागर जी, जयकीर्ति जी, देशभूषण जी और एलाचार्य विद्यानन्द जी हैं। इनके चमत्कारी व्यक्तित्व, अद्भुत कृतित्व, असाधारण प्रतिभा और महान् तेजस्विता की गौरवगाथाओं ने जैन इतिहास के बहुभाग को प्रभावित किया है । गुरु-शिष्यों के प्रथम चतुष्क के काल में कर्नाटक में जैनधर्म का बीजवपन हुआ; द्वितीय चतुष्क के काल में कर्नाटक में जैनधर्म की फसल लहलहाई, और वर्तमान गुरु-शिष्य-पंचक के काल में फूल-फल लगे हैं। इन बन्दनीय गुरुजनों के चरणों में अनन्त प्रणाम !
साधना के मूर्त रूप
सेठ सर भागचन्द सोनी
परमपूज्य आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज को अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने की योजना उनके सदृश व्यक्तित्व के लिए भक्तजनों का सहज समर्पण है। आपने जीवन के प्रारम्भ से ही जिस साधना को प्रारम्भ किया वह आपके जीवन में मूर्त रूप लेकर उपस्थित हुई है । आपकी साधना का ही परिणाम रहा कि भारत की राजधानी में आप विराजमान रह कर राजमान्य व्यक्तियों को अपने शुभाशीर्वाद से लाभान्वित करते रहे हैं। आपने अहिंसा धर्म की ध्वजा को समुन्नत किया है तथा धर्म-प्रभावना में प्रमुख भूमिका निभाई है। आपका व्यक्तित्व अपूर्व है। मैंने आपके अनेक बार दर्शन किये हैं। आप जब अजमेर पधारे तब मुझे व मेरे परिवार को आपकी वैय्यावृत्य का सुअवसर प्राप्त हुआ था । मुझे आपसे सदैव धर्म-दिशा मिली है तथा आपका सान्निध्य पाकर मैंने स्वात्मसंतोष प्राप्त किया है । मैं आपकी छत्रछाया अभिलषित करता हुआ वीर प्रभु से विनय करता हूं कि आपका वरद् हस्त समस्त जैन जाति वराष्ट्र पर हो।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्या
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