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________________ आचार्य महाद्रुम वंदे -डॉ० सुशीलचन्द्र दिवाकर प्रातःस्मरणीय आचार्य रत्न १०८ श्री देशभूषण जी महाराज के दर्शन सर्वप्रथम मैंने तब किए थे, जब वे बाल-यति के रूप में दक्षिण से उत्तर की ओर श्री सम्मेद शिखर पर वंदना हेतु गमन कर रहे थे। सिवनी में हमने उनकी मोहक-मधुर वाणी में कन्नड़ कवि रत्नाकर रचित 'भरतेश-वैभव' पर अनेक प्रवचन सुने। तदुपरांत जबलपुर आदि में 'तरुण-मुनि' के रूप में और तत्पश्चात् श्रवणबेलगोल में वयोवृद्ध 'आचार्य' के रूप में निकट से दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ किन्तु सत के धोव्य गुण सदृश उनकी काया में वैराग्य संपन्न, रत्नत्रयधारी आत्मा का सदा ही अनुभव हुआ। जिनकी तरुणाई में बलिष्ठ शरीर में सर्पदश की स्थिति है, सर्प के ही दांत टूट गए, उन्हीं को श्रवणबेलगोल में महामस्तकाभिषेक की पावन बेला में भी देखा । सभी अवसरों पर अडोल-अंकप निग्रंथ की ही झलक मिली। चेहरे पर वही मोहकता, मुस्कान और निर्विकारता। कन्नड़ भाषा के पारगामी आचार्य महाराज को मैंने हिन्दी के अधिकारी विद्वान् के रूप में देखा, जिसका श्रेय वे यदा-कदा सिवनी प्रवास के प्रारंभिक दिनों में मेरे पूज्य पिता स्वर्गीय सिंघई कुवरसेन द्वारा प्रदत्त प्रेरणा को ही देते रहे हैं। भाषा-विवाद से त्रस्त भारत में पूज्य महाराज जी ने अद्भुत आदर्श उपस्थित किया है । जैनाचार्यों का सदा से यही योगदान रहा है। एक ओर जहां महाराज जी ने विद्वद्रत्न पं० सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर रचित 'महाश्रमण महावीर' ग्रन्थ का कन्नड़ में रूपांतर किया है, तो दूसरी ओर 'धर्मामृत' सदृश सुप्रसिद्ध कन्नड़ ग्रन्थ का हिन्दी में भाषान्तर किया है। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने जैनागम की अद्वितीय सेवाएं की हैं । वस्तुतः वे अद्वितीय आचार्य हैं। उनके द्वारा संपादित प्रशस्त कार्य अद्वितीय ही रहे हैं । वैदिक आम्नाय की नगरी अयोध्या में उन्होंने जिनेश्वर आदिनाथ की मनोज्ञ मूर्ति की स्थापना करा कर जयपुर में खानियां में नवतीर्य की प्रतिष्ठा आदि अनेक अलौकिक कार्य किए हैं। दक्षिण के 'भूवलय' ग्रन्थराज को प्रकाश में लाने का श्रेय भी उन्हीं को है । पं० सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर ने आचार्य शांतिसागर महाराज की 'चारित्र-चक्रवर्ती' ग्रन्थ में जीवनी लिखने के उपरान्त 'आचार्यरत्न देशभूषण महाराज' की जो जीवनी लिखी है, उसमें इन अप्रतिम घटनाओं का मार्मिक उल्लेख किया है। __ मेरा परम सौभाग्य रहा है कि मुझे उनके जन्मस्थान कोथली में उस गृह में प्रवेश पाने का अवसर मिला जहां उनकी जननी से उन्हें जन्म प्राप्त हुआ था। मैं वहां भावविभोर हो गया था। कोथली में ही मैंने उनके नाम पर स्थापित गुरुकुल को भी देखा जहां अनेक मुनियों और त्यागियों सहित जैन बालकों को धर्म-ज्ञान का लाभ प्राप्त होता है। वहां के भव्य जिनालय के भी दर्शन किए। मैंने महाराज के दर्शन जबलपुर, छिदवाड़ा, बेलगांव, सिवनी आदि अनेक स्थानों पर किए हैं और सदा ही उनके शुभाशीर्वाद पाकर कृतार्थ हुआ हूं। उनकी परम कृपा से ही मुझे अपने जीवन में अभ्युत्थान को प्राप्ति हुई है, ऐसी मेरी अटूट आस्था है। मैं एक प्रसंग को कभी भी विस्मृत नहीं कर सकता । महामस्तकाभिषेक के अवसर पर अपार भीड़ उनके दर्शन के लिए लालायित हो उनकी कुटिया के समक्ष एकत्रित हो जाती थी। भीड़ को नियंत्रित करने में स्वयंसेवक व्यस्त रहते थे। ऐसे अवसर पर सामान्य रूप से उनकी कुटिया में प्रवेश पाना मेरे लिए दुःसाध्य था। साहस बटोर कर मैंने अपना नाम का कागज स्वयंसेवक के माध्यम से महाराज के पास भिजवाया । तुरन्त ही महाराज ने मुझे तथा मेरी धर्मपत्नी कमलादेवी को भीतर बुला लिया। अश्रुपूरित नेत्रों से हमने उनके चरणों की वन्दना की और आशीर्वाद पाया । लगभग २० मिनट तक हमें उनकी मधुर वाणी के रसास्वादन का लाभ प्राप्त हुआ। पू० भाई साहब पंडित सुमेरुचन्द्र जी सदा ही कहते रहते हैं कि वे दिवाकर कुटुंब के परम हितचिंतक गुरुदेव हैं। कहां तक बखान करें उनके गुणों का, उनकी गरिमा, गंभीरता और महानता का । “गुरु की महिमा वरणी न जाय, गुरुनाम जपो मन वचन काय" । श्रीआदिनाथ प्रभु के चरणों में प्रार्थना है कि हमारे गुरुदेव स्वस्थ और दीर्घायु हों और स्व-परकल्याण करते रहें। "सम्यग्दर्शन से ही जिसका मूल बना है ज्ञानरूप धन से ही जिसका तना बना है मुनि-विहग-वृद नित चरित शाख पर क्रीड़ा करता कल्पवृक्ष-सम आचारज को वंदन करता।" “सम्यगदर्शन मूलं, ज्ञान स्कंधं चरित्र शाखाढ्यम मुनिगण विहगाकीणं, आचार्य महाद्रुमं वंदे।" कालजयी व्यक्तित्व १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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