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स्मृतियां जो धुंधलायी नहीं
श्री बसन्त कुमार जैन शास्त्री
"कुछ संयम
लाग हैं। खूब पढ़कर या
पर मुस्कुराते हुए आचार्यश्री
(१) जयपुर के दीवानजी के मन्दिर में आचार्य देशभूषणजी महाराज के मंगल प्रवचन सुबह आठ बजे से नौ बजे तक होते हैं, यह जानकर हमारा मन भी महाराजश्री के उपदेश सुनने को हुआ। मैं अपने मित्र जाहिद अली, गंगाशंकर और किशोर वर्मा के साथ समय निकाल कर उपदेश सुनने जाने लगा । उस समय मैं दसवीं कक्षा का छात्र था । मेरे मित्र जाहिद अली मुसलमान, गंगाशंकर ब्राह्मण तथा किशोर वर्मा राजपूत थे । एक दिन रविवार को हम सुबह छह बजे ही आचार्यश्री के सान्निध्य में उपस्थित हुए । आचार्यश्री प्रतिक्रमणादि कार्यक्रम से निवृत्त हुए ही थे। हमें देखकर बोले-"स्कूल में पढ़ते हो?" हमने नम्र हो उत्तर दिया-"हाँ, महाराज !" "कुछ संयम भी है या नहीं ?", यह दूसरा प्रश्न था महाराजश्री का। “महाराज हम पढ़ने वाले लोग हैं। खूब पढ़कर याद कर लें, यही हमारे लिए संयम है"-मैंने ही नम्र हो उत्तर दिया। किंचित् मुस्कुराते हुए आचार्यश्री ने कहा-"पढ़ना, याद करना, यह एक लक्ष्य है विद्यार्थी का, लेकिन इस लक्ष्य की पूर्ति होती है संयम से। और वो संयम होता है-सदाचार, शुद्ध खानपान, नियमित खानपान, नियमित रहन-सहन ।"
__ "मुझे संयम दे दीजिए महाराज", मेरे मित्र जाहिद अली ने निवेदन भाव से कहा । महाराजश्री ने गौर से देखा और बोले"अंडा छोड़ सकोगे ? मांसभक्षण छोड़ सकोगे ?-ये दोनों ही मस्तिष्क और विचारों को तामसिक और कुण्ठित बना देते हैं । "मैं आज से ही छोड़ता हूं महाराज ।"-स्वीकृति के भाव से जाहिद अली ने नम्र होकर कहा । तभी किशोर वर्मा ने भी अंडा छोड़ देने का नियम लिया। अब गंगाशंकर की ओर लक्ष्य करके महाराज श्री ने कहा- "तुम रात्रि भोजन त्याग कर सकते हो ?" वह सुनकर गंगाशंकर चौंका। मैंने बीच में ही कहा - "अन्न की वस्तुएँ रात को नहीं खाना।" अपना समाधान पाकर गंगाशंकर प्रसन्न हो कह उठा-"आज से ही रात्रि भोजन का त्याग है महाराज ।"
आज इस प्रसंग को तीस वर्ष हो गए । मेरे उक्त तीनों साथी अब भी संयमित हैं तथा सम्पन्न हैं । जब मिलते हैं तो कहते हैं-"हमारी सम्पन्नता का राज है, महाराज देशभूषण जी द्वारा दिलाया गया संयम ।"
इति होती है संयम
बिहार में भागलपुर जिले के एक गांव से आए हुए यात्रा-संघ में से तीन (मां, बेटा और बेटे की बहू) महाराजश्री के चरण सान्निध्य में बैठे हुए थे। मैं भी अपने रिश्तेदारों के साथ दर्शनार्थ गया हुआ था । सब महाराजश्री को नमोस्तु कह-कहकर चलते रहे। मैं बैठा रहा और तीनों वे बैठे रहे । अनायास ही महाराज श्री ने अपने आपमें सिमटी हुई उस माँ से पूछा-"यह तेरा बेटा-बहू है ?" अपने को सम्बोधित पाकर मां ने हिचकते हुए 'हां' में सिर हिलाया। कुछ देर मौन रहकर महाराजश्री ने फिर पूछा-“जीवन में संयम बड़ी चीज है। कुछ संयम रखा है?" इस बार मॉ ने अपनी गीली आँखें साफ करते हुए कहा-संयम ही संयम है महाराज । हम गरीब हैं। इसके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। एक दुकान पर छोटी-सी नौकरी करता है। हमारा गुजारा ही मुश्किल से हो पाता है। फिर भी महाराज आप इन्हें कुछ नियम दे ही दीजिए। आपका आशीर्वाद फलेगा-फूलेगा तो जीवन नैया पार हो जायेगी।
महाराजश्री ने इस नवदम्पति को अणुव्रत दिलाए । परिग्रह-परिमाण अणुव्रत में पूछा "कितनी सम्पत्ति रखने का नियम लेते हो?" उत्तर में फिर मां ही बोली-"चार कमरों का एक मकान है, जेवर जो भी है इसके तन पर है। पैसा संचित है नहीं। सम्पत्ति है ही कहाँ महाराज।" इस बार मैं बीच में बोल पड़ा-"अजी, फिर भी लाख-दो लाख के परिग्रह का परिमाण तो ले ही लो।" मेरी बात सुनकर माँ फीकी-सी हँसी में बोली-"क्यों पाप बँधाते हो लाला? जो है उसी से गुजारा हो जाये तो बहुत ।"
आचार्यरत्न श्री देशाभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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