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________________ पावन स्मृतियाँ श्रीमती शशिप्रभा जैन “शशाङ्क" दिगम्बर मुद्राधारी, परम श्रद्धेय, बहुभाषाविद्, महातपस्वी, श्री जिनेन्द्रवाणी के अनन्य उपासक, साधुशिरोमणि, आचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज के पावन दर्शन करने का सौभाग्य मुझे उनके कलकत्ता में बेलगछिया उपवन स्थित श्री १००८ पार्श्वनाथ जिनालय के रमणीक स्थल पर उनके चातुर्मास काल में हुआ था। ऋषिवर की वाणी में इतना ओज, सरसता और स्वभाव में मृदुता है कि नित्य हजारों वंगाली बन्धु उनके दर्शन से अपने को कृतकृत्य मानते थे। पारस-स्वरूप महाराज श्री के पास लौह तुल्य अधर्मी जैन-अजैन बन्धु मांस-मदिरा, मधु, रात्रि भोजन त्याग आदि का त्याग करके जीवन को सार्थक मान महाराज श्री की अनुपम वाणी को हृदयंगम कर नौटते थे । मुझे भी उस समय महाराज श्री से हल्के-फुलके निभने लायक व्रतों को धारण करके आहारदान देने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आहार क्रिया एवं प्रवचन के समय बेलगछिया का कोना-कोना भर जाता था। प्रवचन इतने मार्मिक और हृदयग्राही होते थे कि आबालवृद्ध बड़ी शान्ति के साथ सुनते और उसे हृदयङ्गम करने की चेष्टा करते। वहाँ धर्म का नित्य मेला-सा लगा रहता था, जिसमें स्वशक्त्यानुसार स्त्रीपुरुष धार्मिक नियम आदि वस्तुओं को खरीदता था । आचार्य श्री महान् विद्वान्, दृढ़ संकल्पी, महान् तपस्वी, परिषह विजेता एवं भव्य-प्रभावक महासन्त हैं। जिसे भी उनका पावन संसर्ग प्राप्त हुआ है, वह स्वयं तो जीवन के सद्गामी पथ पर लगा ही, साथ ही उसका जीवन मोक्ष पथगामी बन गया। मैं उस धर्म की महकती वाटिका को कभी भूल सकती हूं? प्रवचनों के मध्य ऐसी-ऐसी शिक्षाप्रद घटनाओं, श्लोकों का समावेश करते कि जिससे विषय सरल, सरस और सारयुक्त हो सके। कितने ही आध्यात्मिक ग्रन्थों के संस्कृत-प्राकृत के श्लोक उनको कंठस्थ हैं। महाराज श्री द्वारा लिखित एवं अनुवाद किये अनेकानेक ग्रन्थ इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं । मैंने उपदेश सार संग्रह के विभिन्न भागों का अध्ययनमनन किया है, और इस निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि इसमें आये विषय जैसे- मनुष्यभव, सार्थकता, आत्मबोध, मानवीय गुणों की उपादेयता, रात्रिभोजन निषेध, जिनेन्द्र दर्शन फलादि का इतना सरल, बोधप्रद विवेचन किया है कि किशोर बालक भी उसे पढ़कर आत्मसात् कर सकता है । अतः महाराजश्री अलौकिक प्रतिभा के अप्रतिम धनी हैं । धर्म का मखौल उड़ाने वाले कुछ व्यक्तियों की विचारधारा है कि वर्तमान के मुनि सच्चे मुनि नहीं हैं, चतुर्थ काल के मुनि ही दर्शन-वन्दन योग्य हैं। मैं ऐसी मिथ्या भावना धारण करने वालों से जानना चाहूंगी कि कौन ऐसा वीर है जिसने दिगम्बरत्व धारण किया हो या एलक-क्षुल्लक पद पर ही शोभित हुए हों। ऐसे व्यक्तियों के जीवन में 'त्याग'का कोई महत्त्व नहीं है । वे सिर्फ खाना, पहनना, प्रवचनवादी बनना या सुनने में ही जीवन की सार्थकता समझते हैं। राग छोड़कर वैराग्य को धारणा सांसारिक सुख को लात मार कर कर्म शत्रु से लड़ना यह वृत्ति उनकी पूज्य है। मुनिचर्या को दूषण बताने वालों ने कभी भी अपने अंतरंग की ओर नहीं झांका होगा कि मैं क्या कर रहा हूं, और मुझे क्या करना चाहिए। यह दूषित बयार शीघ्र ही बंद होगी, और एक दिन उन्हें मानना होगा कि यह उनका भाग्य है कि इस विषम पंचमकाल में भी मुनिराजों, महातपस्वियों के पुनीत दर्शन हो रहे हैं । अत: वे हमारे परमपूज्य आराध्य गुरु हैं । उनके द्वारा दिखाया मार्ग सच्चा कल्याण का मार्ग है। धर्म और जिन मुद्राधारियों की निन्दा करना महान् पाप का कारण है । इन महान् तपस्वियों के जीवन से हमें ज्ञान की वह रोशनी मिलती है जिससे हमारे अन्दर आत्मिक गुणों का विकास होता है। यही आत्मिक उन्नति जीवन के सच्चे सुखों का मार्ग है। उन महातपस्वियों साधुओं को शत-शत नमन है जिन्होंने अंतरंग और बहिरंग क्रियाओं से पाँचों पाप, क्रोधादि चार कषायों का पूर्णत: त्याग कर दिया है, जो बाइस परिषहों को जीतकर चारित्रिक गुणों को धारण करते हैं। ऐसे महापुनीत, लोकपूज्य, असिधारातुल्य दिगम्बर मुद्रा को धारण करके उसका धर्मानुकूल पालन करने वाले मुनिराजों का दर्शन किसी पुण्य के फल से ही प्राप्त होता है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज की सत्प्रेरणा से कई नवीन मंदिरों का निर्माण तथा कितने ही प्राचीन जिनालयों का पुनरुद्धार हुआ है । उन्होंने जैन ग्रंथों का ही नहीं अपितु अनेक अन्य धर्मों के ग्रंथों का अध्ययन किया है। उनके प्रति उनका समादर भाव है। ऐसे जैनाचार्य परमगुरु के दर्शन अभी मुझे श्री गोम्मटेश्वर भ० बाहुबली जी के सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक के समय भी हुए। उनके दर्शन करके मन गद्गद् हो गया और वे पुरानी स्मृतियां सामने आ गयी जब मैं छोटी थी, और हमेशा महाराज श्री के दर्शन करके सिर पर पीछी रखवाने के लोभ से मंडराया करती थी। __ आचार्य श्री अजेय महात्मा हैं, प्रौढ़ तपस्वी हैं, धर्म दिवाकर हैं, संसार के सच्चे हितैषी हैं। ऐसे निर्विकार, निष्कषाय, परमशांत साधुराज के चरणों में शत-शत नमन है-साधु शरणं पवज्जामि । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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