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मेरे शिक्षा गरु
श्री विमल कुमार जैन सोरया
जुलाई सन् १९५३ में विश्ववंद्य आचार्य रत्न विद्यालंकार परमपूज्य १०८ आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज का वर्षायोग अयोध्या तीर्य की समीपवर्ती नगरी टिकैत नगर में सम्पन्न हो रहा था उस समय लेखक आचार्यदेश भूषण दि० जैन गुरुकुल अयोध्या में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय की प्रथमा एवं भा० दि० जैन परीक्षालय सोलापुर की जैनधर्म विशारद का छात्र था। गुरुकुल की स्थापना में प्रथम छात्र के रूप में प्रवेश लेने का श्रेय भी मुझे प्राप्त था। उस समय गुरुकुल परिवार में मात्र १० छात्र थे। हम सभी छात्र धर्माध्यापक के अभाव में धार्मिक शिक्षा की आकांक्षा से अपने गुरुकुल परिवार के संरक्षक एवं न्याय विषय के गुरु स्व० पूज्य पं० कामताप्रसाद जी न्यायतीर्थ के साथ आचार्य श्री के चरणों में कुछ समय के लिए टिकैत नगर गए। वहाँ की धर्मप्राण जैन समाज का वात्सल्यपूर्ण स्नेह हम को ऐसे अभूतपूर्व रूप में प्राप्त हुआ जिसकी अमिट छाप कोमल हृदय पर सदैव-सदैव के लिए अंकित हो गई।
आचार्य श्री के चरणों में बैठकर प्रात: छहढाला और मध्याह्न में तत्त्वार्थ सूत्र पर अपना धार्मिक अध्ययन करता था। नवदीक्षित क्षुल्लिका जो १०५ वीरमती के नाम से जानी जाती थीं, एक वर्ष पूर्व इसी नगर की कुमारी मैना के नाम से एक ऐसी अनोखी लाड़ली बेटी थी जिसका बालापन से ही सारा समय ध्यान, अध्ययन, मनन, चितन में व्यतीत होता था। हम सब छात्रों को पढ़ाने के बाद आचार्य श्री कु० मैना, जो क्ष० वीरमती के नाम से जानी जा रही थीं, को गोम्मट सार ग्रंथ की शिक्षा देते थे और आचार्य श्री स्वयं अंग्रेजी भाषा का अभ्यास करते थे। वही क्ष वीरमती आज भारत-गौरव महान् विदुषी आर्यिकारल ज्ञानमती जी के नाम से सुविख्यात हैं। आचार्य श्री हम सब छात्रों को कक्षा योग्यता के आधार पर धार्मिक शिक्षण देते थे जिसका प्रभाव आज तक मानस-पटल पर तथावत् अंकित है। आचार्य श्री के प्रभावक, आकर्षक एवं बोधपूर्ण शिक्षण पद्धति का प्रभाव जीवन भर के लिए प्रवृत्तिमूलक हेतु बन गया ।
एक दिन आचार्य श्री का अन्तराय हो जाने से आहार नहीं हआ। हम छात्रों में से कुछ ने आचार्य श्री के इस अन्तराय - से दुःखी होकर भावावेश में एकासन कर लिया। दूसरे दिन प्रातः से ही हम लोगों को क्षुधा व्याकुलता पैदा करने लगी। प्रात: प्रार्थना के बाद लगभग ७ बजे जब हम सब आचार्य श्री के चरणों में पढ़ने बैठे तो क्षुधा-वेदना के कारण पढ़ने में मन नहीं लग रहा था । । जीवन में पहली बार भावावेशी एकासन व्रत धारण किया था। आचार्य श्री हम सब की अन्तर पीड़ा को भांप रहे थे। अचानक एक सिंघाड़ा बेचने वाला आवाज लगाते हुए निकला। हम सब उस तरफ देखने लगे तो आचार्य श्री ने कहा--सिंघाड़े की तरफ दृष्टि है, पढ़ने की तरफ नहीं ! मेरे पास तो पैसा ही नहीं जिससे मैं खरीद कर तुम सबको खिला दूं ! आचार्य श्री का कहना था कि सिंघाड़ा बेचने वाला बिना कुछ कहे गली से हमारे कमरे की ओर मुड़ा और अन्दर चला आया तथा पूरी टोकरी उड़ेल कर आचार्य श्री से प्रार्थना करने लगा कि गुरुकुल के इन बच्चों को यहाँ की समाज नानाविध व्यंजन खिलाकर प्रसन्न हो तो क्या मैं रूखे-सूखे सिंघाड़े खिलाकर हर्षित नहीं हूंगा । इन्हें स्वीकार करने की अनुमति देने की कृपा करें। आचार्य श्री मुस्कराए कि हम लोगों ने सिंघाड़े खाना शुरू किए । विक्रेता हर्षित होकर छील-छील कर दे रहा है और हम सब लोग हर्षित होकर खा रहे हैं ! उसे खिलाने में हर्ष हो रहा था, हम सबको खाने में आनन्द आ रहा था । आचार्य श्री ने मुस्करा कर कहा-बोलो अब भावावेश में क्या एकासन फिर करोगे? हम लोगों ने निडरता से कहा-"हाँ, महाराज जी का अगर अन्तराय हुआ तो फिर करेंगे।" आचार्य श्री हम लोगों की बालभक्ति पर प्रमुदित · हुए और ऐसा मंगल आशीर्वाद दिया कि जो जीवन की राह में प्रतिपल फलीभूत हुआ। हमें गौरव है भारतरत्न आचार्य श्री को शिक्षा गुरु के रूप से स्मरण करने पर । यद्यपि धर्म गुरु के रूप में आचार्य श्री विश्व के जनों को पंचपरमेष्ठि के रूप में त्रिकाल वंदनीय तो हैं ही ! उनके श्री चरणों में कोटिशः नमन है ।
. कालजयी व्यक्तित्व
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