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________________ महान् प्रभावक दिगम्बर सन्त डॉ० ज्योति प्रसाद जैन वर्तमान शताब्दी के प्रथम पाद से पूर्व पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों से उत्तर भारत में दिगम्बर मुनियों का प्राय: अभाव रहता आया था। कभी कहीं किन्हीं मुनिराज की क्षणिक झनक दिखाई पड़ने की बातें सुनी जाती थीं। अधिकांश जनता दिगम्बर मुनियों के दर्शनों से वंचित ही रही। कुछ एक गृहत्यागी, ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, ऐलर आदि विचरते रहे, और वे ही दिगम्बर आम्नाय के श्रावक. श्राविकाओं के लिए गुरुभक्ति का माध्यम रहे। दिल्ली, हिसार, हस्तिकंत, अटेर, ग्वालियर, आमेर, नागोर, बांसवाड़ा, कारंजा आदि कई स्थानों में भट्टारकीय पीठ भी थे। तथापि उस काल में उत्तरापथ में आम्नाय का संरक्षण मुख्यतया आगरा, दिल्ली, जयपुर, आदि के अनेक गृहस्य विद्वान् पंडित ही करते रहे । दक्षि गाय से, विशेषकर कनाटक देश में दिगम्बर मुनियों की परंपरा प्रायः अविच्छिन्न बनी रही, यद्यपि वहां भी अनेक भट्टारकीय पीठे भी रहीं और उनका प्रभाव भी पर्याप्त रहा । इस शती के तीसरे दशक में दिगम्बर साधुओं का दक्षिण से उत्तर की ओर विहार एकाएक प्रारम्भ हुआ । आचार्य शान्तिसागर छाणी पधारे और फिर चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी अपने विशाल संघ के साथ पधारे। उत्तरभारत के निवासियों ने भी मुनि-दर्शन एवं मुनिसेवा का प्रभुत लाभ लिया । इस संघ की शाखा-प्रशाखाओं के अतिरिक्त कई नवीन संघ भी उदय में आये, और गत पचास वर्षों में उत्तरापथ में जन्मे अनेक मनि, एलक, क्षुल्लक, आर्यिकाएँ आदि भी हुए। तथापि आज भी जो लगभग एक सौ दि० मुनिराज उत्तर भारत में विचरते दृष्टिगोचर हैं, उनमें अधिकतर दक्षिणभारतीय ही हैं, जिनमें से अनेक ने तो अपने विहार, चातुर्मासों, प्रवचनों, साहित्यसृजन एवं प्रभावक कार्यों से लोक को अत्यन्त प्रभावित किया है। ऐसे ही मुनिपुंगवों में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज हैं । शताब्दी के उत्तरार्ध के आरंभिक १५-२० वर्ष पर्यन्त उनका विहारक्षेत्र उत्तर भारत ही रहा-दिल्ली से कलकता पर्यन्त उन्होंने कई बार विहार किया, विभिन्न स्थानों में चातुर्मास किए, मन्दिर निर्माण कराए, बिम्ब प्रतिष्ठाएं कराईं, संस्थाएं स्थापित कराई, विपुल साहित्य प्रकाशित कराया और अपने व्यक्तित्व से जैनों को ही नहीं, अनेक जैनेतर विद्वानों, श्रीमंतों एवं राजनेताओं को प्रभावित किया। उत्तरभारत में जैन साधुओं के विस्मत प्रायः शिवरत्व को पुनः लोकसमादत बनाने में उनका विशेष योग रहा । अयोध्या तीर्थ पर दो बार बिम्ब प्रतिष्ठाएं कराई, भ० आदिनाथ का विशाल मंदिर निर्माण कराया, जिसमें भगवान् को ३२ फुट उत्तुंग मनोज खड़गासन प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई, एक गुरुकुल की स्थापना भी की. रत्नपूरी तीर्थ का जोर्णोद्धार कराया, दिल्ली आदि अन्य अनेक स्थानों को उपकृत किया। वार्द्धक्य के कारण उन्होंने दक्षिण देश की ओर विहार किया और कोथली, कोल्हापुर आदि को अपनी निर्माण एवं प्रभावक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया । हमें आचार्य श्री के दर्शनों एवं सान्निध्य के लाभ का कई बार सौभाग्य मिला है । उन्हें सदैव साहित्यसृजन अथवा धर्मप्रभावना की किसी न किसी प्रवृत्ति में संलग्न देखा । लखनऊ आदि में दिये गये उनके प्रवचन कई जिल्दों में प्रकाशित हुए थे। महाकवि रत्नाकर के 'भरतेशवैभव' जैसे कन्नड़ साहित्य के कई रत्नों का स्वयं अनुवाद करके प्रकाशन कराया। इस महान् धर्मप्रभावक सन्त का हार्दिक अभिनन्दन करते हुए तथा उनके तपःपूत जीवन की सफलता की मंगल कामना करते हुए हम उनके चरणों में अपनी विनयांजलि अर्पित करते हैं। आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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