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आध्यात्मिक एवं सामाजिक उपलब्धियों के समग्रद्रष्टा
श्री कामेश्वर शर्मा 'नयन'
मानव-समाज की स्वच्छन्द धारा सतत प्रवाहिनी अन्तःसलिला की भाँति आदिकाल से अद्यावधि प्रवाहित है। समयसमय पर 'यदा यदा हि धर्मस्य' का स्मरण कर प्रभु हमें अपनी छत्रछाया में रखने आते हैं। यदि धरती के सारे कार्यकलाप सुचारु रूप से चलते रहेंगे तो वे स्वयं निलिप्त रहकर तिरोभूत हो जाते हैं। पुन: जब कभी वह स्थिति अस्वाभाविकता की ओर बढ़ती है, भारत या भारत से बाहर भी कोई न कोई महान् सन्त, महात्मा, पीर या पैगम्बर के रूप में अवश्य आते हैं, जो हमें विपथ से सुपथ पर चलाकर हमारा शाश्वत कल्याण करते हैं। महाप्रभु ऋषभदेव से लेकर अद्यावधि यह चिन्तन-धारा प्रवाहित है। प्रकृत्यैव वे महात्मा हमारा उद्धार करते हैं। उन्हें हमसे न कुछ लेना है, न चिरौरी या विनय करवानी है । 'परकार्य साधनोति इति साधुः' जैसी पक्तियां इनके उपदेशों और कार्यों से स्वयं सिद्ध होती हैं। इसी संदर्भ में हमारे परमयोगी जैन सन्त आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज का आविर्भाव आज से लगभग ८० वर्ष पूर्व कर्नाटक के बेलगांव मण्डलान्तर्गत कोथली' ग्राम में हुआ।
परमसंत आचार्यरत्न जी ने जगत् को वह संजीवनी शक्ति दी है, जिस पर भारत को ही नहीं, अपितु सारे विश्व को गर्व है। अपने ५१ वर्षीय दिगम्बरत्वकाल में उन्होंने आत्मदर्शन के द्वारा आध्यात्मिक दिव्यकरण कर अपने को भगवान् महावीर की तरह रख लोक-यात्रा में संसार के अनन्त प्राणियों की अपार सहायता की है। विगत दो शताब्दियों में आचार्य जी की तरह दूसरा कोई सन्त दृष्टिगोचर नहीं हो सका, जिसने दिगम्बरत्व स्वीकार कर अपने जीवन का समर्पण किया हो । आचार्य जी ने निदिध्यासन, ध्यान और कठोर तप के द्वारा लाखों मृतप्राय प्राणियों के अन्धकार और भ्रम को दूर किया है। आपके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलकर भारत की पीढ़ियाँ सद्धर्म मार्गाश्रित हो आध्यात्मिक लाभ उठाती रहेंगी। आपकी अहर्निश तपस्या से सारा जैन जगत् कृतज्ञ हो चुका है। ऐसे देवोपम तपस्वी को हम अपना अध्यदान कर नीराजन करें, यह हमारे परम सौभाग्य का विषय है। वास्तव में यह हमारा अहोभाग्य है कि विद्वानों, बुद्धिजीवियों और जिज्ञासुओं के प्रकाशपुंज आचार्यरत्न जी हमारे बीच हैं। समाज को उनके दिव्य दर्शन से ही वह ज्योति मिलती है, जिससे हमारा व्यक्तित्व तो निखरता ही है, साथ ही सारे मानव समाज का अतिशय कल्याण होता है। जिसने जीवन में चीवर तक रखना सदा-सदा के लिए अवरुद्ध कर दिया, अपने पंचतत्व-मिश्रित काया की कोई परवाह नहीं कर के देश, धर्म और समाज को तपोमय दिव्यज्ञान का आलोक दिया, धन्य हैं ऐसे तपोनिष्ठ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ।
श्रमण-परम्परा के पक्तेिय साधुओं में आचायरत्नजी ऐसे सन्त हैं, जिनके उपदेश और विचार हमें सदा सद्धर्म के लिए प्रेरित करते रहेंगे । आज जहां बाह्याडम्बरों में पड़कर दिगम्बर साधुओं का तिरोभाव-सा होता जा रहा है, वहीं हमारे आचार्यरत्न जी जैसे तपोनिष्ठ दिगम्बर साधु श्रमण-परम्परा की विभूति के रूप में हमारे बीच में वर्तमान हैं। यह बड़े गर्व की बात है। संसार के चाकचिक्य से दूर विमलमति भगवान महावीर की उस कड़ी को उद्दीप्त करने वाले जैन साधुओं में भी कितने लोग इनकी तरह हैं ? आज तक दिगम्बर श्रमण-परम्परावृक्ष की जड़ को सुदृढ़ और तनों को सम्पुष्ट बनाते हुए जिन श्रमणों के कठोरतप और साधनाश्रम लोगों के समक्ष दृष्टिगोचर हैं, उनमें आचार्यरल श्री देशभूषण जी महाराज और आचार्य शान्तिसागर जी के नाम स्वाक्षरों से उत्कीर्ण हैं । आचार्यरत्न जी ने देश के कोने-कोने को अपनी पवित्र चरण-धूलि से गौरवान्वित कर भारतीय संसद्-भवन तक को अपनी पावन उपस्थिति से कृतार्थ कर दिया है।
अनेक भाषाविद् आचार्यरत्न जी ने भारतीय दर्शन को जो उज्ज्वल परम्परा दी है, वह अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति और राष्ट्रीय एकता के सूत्ररूप में हम सभी के समक्ष सदा प्रकाशित रहेगी। भाषायी एकता के प्रकाशस्तम्भ के रूप में वे हमारे समक्ष हैं। उन्होंने दक्षिण की भाषा-सरिता में उत्तर का भाषा-प्रवाह इस सुगमता से प्रवाहित किया जिसका गंगा-गोदावरी-भाषा-संगम तीर्थराज प्रयाग से जरा भी कम महत्त्व नहीं रखता। उन्होंने तमिल, कन्नड़, बगला, गुजराती आदि भाषाओं के अनेक ग्रन्थों का हिन्दी में अनुबाद कर कृष्णा-कावेरी की धारा को अलकनन्दा से ब्रह्मपुत्र तक प्रकृत्यैव पहुँचा दिया। यह कार्य दूसरे असाधारण साधुओं से भी सम्भव नहीं है। आपने धार्मिक विषयों के अनेक ग्रन्थों का भारत की दूसरी कई भाषाओं में तथा राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद कर देश और जनता की अविस्मरणीय भलाई की है। अनवरत अविश्रान्त रहकर आपने ऐसा अज्ञात और महत्त्वपूर्ण प्रकाशन किया है, जिसकी
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ
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