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किया था। आचार्य श्री के समीप आगरे के मेडिकल कालेज के प्रमुख डाक्टर चिकित्सा हेतु आए तब गुरुदेव ने हँसते हुए कहा "हमारा क्या इलाज करते हो, उस सर्प की दवा करो जिसके दांत टूट गये हैं।" ।
पुज्यश्री शिखर जी की ओर जाते हुए हजारीबाग के समीप पहुंचे। वहां एक दुष्ट विधर्मी पंडित ने कुछ अपशब्द इनके प्रति कहे। तुरन्त ही उस दुष्ट के पेट में भीषण दर्द हुआ। महाराज को उसे देख दया आयी। उन्होंने एक झाड़ की पांच पत्तियों का रस कान में डाला । वह तुरन्त स्वस्थ हो गया। उसने क्षमा मांगो और वह उनका भक्त बन गया ।
आरा में एक बार आचार्य श्री के नेतृत्व में विशेष पूजा विधान हुआ था। होम कुंड में एक जरी की साड़ी रखी थी। उसके ऊपर होम हुआ। साड़ी को जरा भी क्षति नहीं पहुंची। चौबीस घंटे बाद आग बुझी थी।
मामिक वाणी:-आचार्य श्री का भाषण बड़ा स्वाभाविक और मार्मिक होता है। स्तवनिधि तीर्थ में मैं पूज्य श्री के पास १९६८ में था। वे कहने लगे कपड़ा स्वच्छ करने के लिये तुम लोग कपड़े की डंडे से पिटाई करते हो; तब वह स्वच्छ होता है। इसी प्रकार हम तप के द्वारा इस शरीर को दंड देते हैं, तब आत्मा निर्मल बनती है।
विषयलोलपी, स्वेच्छाचारी अपने हाथ में समयसार का ध्वज लेकर अध्यात्मवाद की जय का नारा लगाते हैं, इस संदर्भ में गुरुदेव ने एक दिन कहा था "ये विषयान्ध लोग 'रूप और रुपैय्या' के फेर में निरन्तर फंसे रहते हैं। ये तत्त्वार्थ श्रद्धानम के स्थान पर अर्थ श्रद्धानम् को सम्यक्त्व मान बैठे हैं। ये अपने को दिव्य दृष्टि अर्थात् निश्चयनय वाला कहते हैं। वास्तव में ये लोग द्रव्य दष्टि हैं और नकद रूप द्रव्य पर अपना ध्यान निरंतर लगाते हैं।" एक दिन मैंने पूछा "सुख आणि शांति कुट आहे ?"
उत्तर-"त्यागा मध्ये सुख-शांति आहे।" आचार्य श्री का विनोद भी मधुर रहता है। मुझे सिवनी आने के लिए गुरुदेव की अनज्ञा चाहिए थी। मैंने कहा, “जाने की टिकट मिलेगी क्या" उन्होंने कहा-मोक्ष की टिकट चाहिए क्या? इसके पश्चात् मुझे यह आशीर्वाद दिया-"सुमेरु शिखर अभिषेक भागी भव"।
मुझ पर उनकी बड़ी कृपा है। मुनि होने पर युवावस्था में वे सिवनी आये थे। हिन्दी का एक अक्षर भी उनके मुख से कठिनता से निकल पाता था। उस समय मैंने पूज्य श्री के अध्ययन हेतु थोड़ी सेवा की थी। उस लघु सेवा को वे अभी तक अपने हृदय में स्थान दिये हुए हैं। एक समय कहने लगे, "दूसरे लोग मुझे दगड़ (पाषाण) कहते थे, पंडित दिवाकर ने मुझे मूर्ति रूप बनाया !"
आचार्य श्री अपने बारे में कहते हैं कि "मुझे आत्मविकास के लिये आचार्य शांतिसागर जी महाराज से मूल प्रेरणा मिली थी। आचार्य श्री क्षुल्लक अवस्था में हमारे घर पधारे थे। उनका आहार हुआ था। उन्होंने मेरे सिर पर पिच्छी रखकर आशीर्वाद दिया था। महाव्रती साधु बनने पर आचार्य श्री मेरे बारे में समाचार मंगाते थे। मेरी धर्म-सेवा के समाचार सुनकर आचार्य महाराज अत्यंत आनंदित होते थे।"
आचार्य देशभूषण महाराज के विषय में धर्मरत्न जौहरी श्री महताब सिंह जी, प्रमुख, दिल्ली जैन समाज, के शब्द स्मरण आते हैं जो उन्होंने अपने पत्र में लिखे थे-"पंडित जी अभी हम और आप आचार्य देशभूषण महाराज की श्रेष्ठता तथा उच्चता का मूल्यांकन पूर्णतया नहीं कर रहे हैं, लेकिन स्मरण रखिये कि ऐसा महान् प्रभावशाली साधु अब आगे नहीं होगा।"
महान् कार्य :-आचार्य श्री ने अयोध्या में ३२ फुट ऊंची आदिनाथ प्रभु की मूर्ति विशाल जिन-मंदिर में विराजमान करवायी, कोल्हापुर के जैन मठ में ऋषभदेव भगवान् की लगभग ३० फुट ऊँची मूर्ति उनके ही निमित्त से शोभायमान हो रही है । जयपुर के समीप खानिया के पर्वत पर चूलगिरि रूप एक महत्त्वपूर्ण नवीन तीर्थ बना दिया है, जिसके विषय में जयपुर की राजमाता गायत्री देवी ने कहा था कि उसके कारण जयपुर महानगरी के सौन्दर्य की अभिवृद्धि हुई है। कोथली में सुन्दर जिनमंदिर, गुरुकुल आदि का निर्माण अगणित लोगों को कल्याण मार्ग में लगा रहे हैं।
आचार्यश्री ने कन्नड़, हिन्दी ,मराठी द्वारा साहित्य निर्माण के क्षेत्र में भी अपना विशेष स्थान बनाया है।
महान् परिश्रम, भगवती भारती की सतत् समाराधना तथा अत्यत उज्ज्वल चरित्र के प्रसाद से आचार्यरत्न देशभूषण महाराज वास्तव में भारत के नहीं, विश्व के भूषण हैं । वे महान् हैं । उनके चरणों में हमारा शतशः प्रणाम है।
कालजयी व्यक्तित्व
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