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________________ आवश्यकता आज अनिवार्य है। वर्तमान युग के मानवों में प्रेम और सद्भावना का यह मन्त्रद्रष्टा अद्वितीय है। विभिन्न भाषा-भाषी भारतीयों के बीच आपका यह धार्मिक और साहित्यिक अवदान तब तक चमकता रहेगा, जब तक पृथ्वी पर गंगा और गोदावरी की कलकलनादिनी धारा विश्व को आप्यायित करती रहेगी। समाज के प्रति आपकी उदात्त हितभावना सचमुच आज की व्याधि ग्रस्त मानवता के लिए अद्भुत् चरकसंहिता के रूप में स्थापित की जायेगी । आपकी अटूट निष्ठा और अथक प्रयास की सुखद उपलब्धि के रूप में जैन धर्म के प्रथम और मूल संस्थापक भगवान् ऋषभदेव जी महाराज की बत्तीस फुट ऊंची आदमकद प्रतिमा की स्थापना और पवित्र मन्दिर का निर्माण अयोध्या में सम्भव हो सका। विश्ववासियों को जैन-धर्म के दिव्यज्ञान से प्रदीप्त करने वालों में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज का स्थान सदा वरेण्य रहेगा। परम पूज्य महाराज जी कोटि-कोटि जनों के उपास्यदेव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आपने अनेकसा माजिक, शैक्षणिक एवं धार्मिक संस्थाओं का निर्माण कर समाज की अतुलनीय सेवा की है। आपकी सेवाएं गोमुखी द्वार की तरह सदा समादृत रहेंगी। आपके द्वारा स्थापित विद्यालय, महाविद्यालय, पुस्तकालय, वाचनालय, औषधालय और अनेक धर्मशालाएं आपके यशोध्वज को अहर्निश फहराती रहती हैं। आपने बड़े से बड़े जैन मन्दिरों का निर्माण कराकर अखण्ड कीति का स्तम्भ स्थापित कर दिया है। देश के महार्घरत्नों में हमारे आचार्यरत्न जी एक हैं। भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक भगवान् महावीर के सन्देश पहुंचाने वाली आपकी पद-यात्राएं भारतीय इतिहास की वह ज्योति कड़ी है, जिसके आलोक में आने वाले भारत को ही नहीं, समस्त विश्व को ज्ञान की ज्योति मिलती रहेगी । आज भी भगवान् महावीर की पीयूषवर्षिणी वाणी का रसास्वादन आपके अमृतोपदेश के माध्यम से हम घर बैठे कर लेते हैं। असंख्य प्राणियों को आपने अपने प्रवचन और ज्ञानोपदेश के द्वारा आध्यात्मिक सम्पन्नता प्रदान की है। आप आज के युग में ऐसे प्रकाशस्तम्भ हैं जिसके आलोक में सारा उद्वेलित मानव-जगत् आलोकित होकर शान्ति और परम कैवल्य तक की आकाङ्क्षा लेकर पलक-पांबड़े बिछाये बैठा है । यह जगत् प्रेम, शान्ति और सद्भावना के कल्पवृक्ष आचार्यरल श्री देशभूषण जी महाराज के दर्शनों का सदैव आकाङ्क्षी बना रहेगा। अनुभूति की जाती है, कही नहीं जाती। डॉ० लालबहादुर शास्त्री श्री 108 परमपूज्य आचार्य देशभूषण जी इस युग के महान् आचार्यों में से हैं। सुदूर दक्षिण से विहार कर उत्तर प्रांत में आपने अपनी देशना तथा चर्या से जनता का जो उपकार किया है वह अविस्मरणीय है। इस सम्बन्ध में वस्तुतः उत्तर प्रान्त दक्षिण प्रान्त का बहुत कुछ ऋणी है । आचार्य श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय जब बारह वर्ष का दुभिक्ष पड़ा था, उस समय दिगम्बर जैन साधुओं को दक्षिण प्रान्त ने ही शरण दी थी। अध्यात्म का जागरण और उद्बोधन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द भी दक्षिण प्रान्त के ही थे, जो आज भी समयपाहुड' ग्रन्थ के रूप में जनजन का कल्याण कर रहे हैं। कलिकाल के प्रभाव में यहां उत्तर प्रान्त में जब साधु परम्परा समाप्तप्रायः थी तब उसका पुनरुद्धार श्री 108 आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने ही किया था। आज जो दिगम्बर जैन साधु स्थानस्थान पर परिदृश्यमान हैं, यह उन्ही की कृपा का फल है, जो मूलतः दक्षिण प्रान्त के थे और बाद में विहार करते हुए उत्तर प्रान्त में आये थे। आचार्य देशभूषण जी ने दक्षिण से उत्तर में विहार कर उस जैन साधु परम्परा को और भी समृद्ध किया है। आज यद्यपि उनका स्वास्थ्य क्षीण है, फिर भी वे धर्म-प्रचार में संलग्न हैं। आपने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन किया और कर, या है। देहली में आपने वर्षों विहार किया है तथा यहां के भक्तों को धर्माचरण के लिये प्रेरित किया है। मुझे अनेक बार आपके चरण का सान्निध्य प्राप्त हुआ है और आपके आशीर्वादों का लाभ मिला है। महाराज श्री के द्वारा जैन-साहित्य का भी पर्याप्त प्रचार और प्रसार हुआ है। एक बार मैंने महाराज से कहा कि आपको मुनि बनने के बाद जो सुख-शांति की अनुभूति हुई है, उसका विवरण कृपया हमें भी सुनाएँ । महाराज बोले-"आप मुनि बन जाओ; तभी आपको सुख-शांति की अनुभूति का स्वयं ज्ञान होगा, हमारे कहने से नहीं होगा। अनुभूति की जाती है, कही नहीं जाती। आप तो विद्वान् हैं और मुनि बन जायेंगे तो सोने में सुगंध होगी।" मैंने कहा---मुनि बनने का हमारा भाग्य कहां? महाराज बोले- "मुनि भाग्य से नहीं बना जाता, किन्तु भाग्य को दबोच कर बनना पड़ता है !" आचार्य देशभूषण जी वस्तुतः देश के भूषण हैं। आजकल आप का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं है, फिर भी आप भाग्य से लड़ रहे हैं और मुनिपद को धारण किये हुए हैं । मैं आपके रत्नत्रय की कुशलता की कामना करता हूं। कालजयी व्यक्तित्व ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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