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डॉ० रमेशचन्द्र गुप्त ने किया है । 'जैन प्राच्य विद्याएं' एवं 'जैन साहित्यानुशीलन' शीर्षक खण्डों के सम्पादन में भी उनका सहयोग रहा है । 'जैन इतिहास, कला और संस्कृति' के स्वतन्त्र सम्पादन तथा शेष सभी खण्डों के पारस्परिक सामंजस्य का दायित्व मुझ पर रहा है । सम्पादन मंडल के सभी सहयोगियों की सारगर्भित मंत्रणा मुझे सदैव उपलब्ध रही है। डॉ० रमेशचन्द्र गुप्त, डॉ० मोहनचन्द, डॉ० दामोदर शास्त्री, डॉ. महेन्द्र कुमार 'निर्दोष' तथा श्री बिशनस्वरूप रुस्तगी तो समय-समय पर विचार-विमर्श के लिए कार्यालय में आते रहे हैं और कार्य को शीघ्र सम्पन्न कराने के लिए अनेक बार प्रेस में भी गए हैं, किन्तु उन्होंने किसी भी प्रकार के मार्ग-व्यय को स्वीकार नहीं किया। इस उदारतापूर्वक दिये गए सहयोग के लिए समिति की ओर से मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के लिए जैन धर्म के शीर्षस्थ आचार्यों एवं मुनियों का आशीर्वाद हमारे साथ रहा है। उन्होंने कृपापूर्वक समय-समय पर हमारा मार्ग दर्शन किया है और मनोबल बढ़ाया है। परामर्श मंडल के सदस्यों ने आवश्यकतानुसार ग्रन्थ की रूपरेखा को समझा, सराहा और अपने उपयोगी सुझाव दिए, सम्पादन मंडल के सभी विद्वान् और विशेषतया डॉ० रमेशचन्द्र गुप्त तथा डॉ. मोहनचन्द विगत सात वर्षों से इस कार्य में मिशनरी भावना से सहज समर्पित रहे, लेखकों से बिना किसी पारिश्रमिक के शोधपरक निबन्ध एवं अन्य महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई। कुछ लेखक बन्धु तो इस बीच दैव-योग से कालकवलित भी हो गए । अभिनन्दन ग्रन्थ समिति की ओर से मैं इन सभी सहयोगियों का साधुवाद करता हूँ।
इस अभिनन्दन ग्रंथ को सुरुचिपूर्ण रूप में प्रस्तुत करने की दृष्टि से मुझे समाज के विभिन्न वर्गों के अनेक सज्जनों का सहयोग मिला है। इस धर्म कार्य के लिए सर्वश्री नरेन्द्र मल्होत्रा, श्रेणिक लाल शर्मा, अजित वंद्योपाध्याय, जुगमन्दर दास जैन 'युगेश', मुन्शी सुमेरचन्द जैन (पंच), अनन्त कुमार जैन (जैन मेडिकोज), सुधीर जैन, विष्णु कुमार भार्गव, जिनेन्द्र कुमार जैन कागजी, अनिल कुमार जैन (वर्धमान पेपर प्रोडक्ट्स) का निष्काम भाव से सहयोग प्राप्त हुआ है । श्री सुरेन्द्र जैन ने समिति के लिए चित्रांकन में उदारता से सहयोग दिया है। शांतिगिरि के चित्र भण्डार से भी कुछ दुर्लभ चित्र प्राप्त हुए हैं। श्री महताबसिंह जैन जौहरी, श्री बिजेन्द्र कुमार जैन सर्राफ, श्री प्रेमचन्द जैन (पहाड़ी धीरज) ने भी अपने निजी संग्रह से कुछ चित्र उपलब्ध कराए हैं। श्री पवन कुमार जैन, श्री संजय चराड़वा ने अपनी तूलिका से ग्रन्थ को सज्जित करने में सहयोग दिया है।
अभिनन्दन ग्रंथ को सर्वांग सुन्दर, उपयोगी एवं प्रामाणिक रूप देने के लिए देश-विदेश के हजारों साधु-सन्तों एवं मनीषियों से सम्पर्क एवं पत्र-व्यवहार किया गया। समिति ने अपने गठन से अब तक लगभग पन्द्रह हजार पत्रों का आदान-प्रदान इस सारस्वत अनुष्ठान के निमित्त किया है जो स्वयं में इस अभिनन्दन का एक हिस्सा बन गया है । इस विशालकाय अभिनन्दन ग्रंथ का मुद्रण विभिन्न मुद्रणालयों में हआ है। इस दष्टि से सर्वश्री कुंवरकान्त चौधरी, भगवत स्वरूप शर्मा, रामकिशोर शर्मा, शेखर जैन, पंकज जैन, अम्बुज जैन, गंगाशरण शर्मा की सेवाएं उल्लेखनीय हैं । जिल्दसाज श्री मकसूद अली ने भी बड़े धैर्य का परिचय दिया है। अधिकांश सामग्री सन् ८२-८३ में ही प्रकाशित हो चुकी थी। इस सामग्री को उन्होंने इतनी लम्बी अवधि तक संजोए रखा और सुरुचिपूर्ण जिल्द बांधी, इसके लिए वे निश्चय ही हमारी बधाई के पात्र हैं।
इस विशाल अभिनन्दन ग्रंथ के प्रकाशन के निमित्त जिन दातार महानुभावों ने आचार्यश्री के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए संरक्षक अथवा साधारण सदस्य बन कर धन सुलभ कराया है, उनके प्रति आभार व्यक्त करना भी मैं अपना कर्तव्य समझता है। अभिनन्दन ग्रंथ समिति के इतिहास में जनवरी ८३ से दिसम्बर ८५ की अवधि निष्क्रियता और उदासीनता की रही है। यद्यपि सम्पादकों ने अपना सभी कार्य सर्वथा अवैतनिक रूप में किया है और कार्यालय सम्बन्धी व्यवस्था पर भी राशि व्यय नहीं की गई, तथापि कागज के क्रय और मुद्रण व जिल्दबंदी के भुगतान तो करने ही थे। इस सम्बन्ध में मुझे यह कहते हुए संकोच है कि अभिनन्दन ग्रन्थ समिति के गठन से लेकर अब तक हमें समय-समय पर आर्थिक कठिनाइयों से संघर्ष करना पड़ा है। समाज के अनेक महानुभावों ने वचन तो दिया किन्तु या तो उसका पालन नहीं किया अथवा बारम्बार स्मरण दिलाने पर भी कच्छप गति से सहयोग दिया। परिणामस्वरूप ग्रन्थ के प्रकाशन में विलम्ब होता गया और सन् १९८० में प्रारम्भ किया गया यह भक्तिपरक अनुष्ठान येन-केन-प्रकारेण सन् १९८७ में पूरा हो पा रहा है। यह भी समाज के लिए कम गौरव की बात नहीं है !
आर्थिक सहयोग समय पर प्राप्त न होने का एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि इस ग्रंथ की सामग्री मुद्रण के लिए विभिन्न चरणों में देनी पड़ी है और प्रेस भी बदलनी पड़ी हैं। परिणामत: मुद्रण की एकरूपता में बाधा पहुंची है और प्रूफ-संशोधन के समय वर्तनी की एकरूपता भी खंडित हुई है।
इस प्रकार की विषम स्थिति में जनवरी १९८६ में समिति को प्राणवान् बनाने के लिए विशेष सभा का आयोजन किया गया। सभा में विधान के अनुसार पदाधिकारियों एवं कार्यकारिणी का पुनर्गठन हुआ और इस सभा में उपस्थित सभी महानुभावों ने कार्य को यथाशीघ्र पूर्ण करने के लिए सहयोग देने का आश्वासन दिया और इस कार्य को सफल बनाने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य किया। इस नवगठित समिति के अध्यक्ष श्री लालचन्द जैन एडवोकेट ने समय-समय पर उपयोगी मार्गदर्शन किया और आर्थिक कारणों से समिति का कार्य प्रभावित न हो इसके लिए
आस्था और चिन्तन
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