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यतिवर्य नमोऽस्तु
मुनि श्री नेमीसागर जी महाराज
श्री १०८ प्रातःस्मरणीय, परम पूज्य आचार्य, जगत् वन्दनीय श्री देशभूषण जी महाराज सम्यक् रत्नत्रय विभूषित, अनेकानेक पद-संयुक्त, अनेक भाषाओं के विज्ञाता, द्वादशांग विद्यावारिधि, गुरु परम्परा आम्नाय पद्धति से अलकृत, आगम सिद्धान्त अध्यात्म जिनवाणी के प्रणेता, जगत् व आत्महितैषी, गुरुवर्य , अनेक ग्रन्थों के समूल अनुवादकर्ता, मोक्षार्थी, महागंभीर, महारथी, परोपकारी, स्वात्मनिधि के रक्षक, स्याद्वाद अनेकान्त वस्तु स्वरूप स्वतन्त्रता के ज्ञाता, द्रष्टा, धर्मध्वज के प्रसारक, धर्मचक्र के प्रवर्तक, धर्मनिष्ठ, शीलवत प्रतिपालक, चतुर्विध संघ के नायक, ऋषि यति मुनि अनगार इत्यादि के संरक्षक, प्रश्नोत्तरों में प्रवीण, वात्सल्यधारक, सर्वगुणालंकृत, ख्याति लाभ पूजा प्रतिष्ठा से अनभिज्ञ, शुद्धात्मदर्शी, सम्यक् स्वानुभूति के रसिक, संसार व शरीर भोगों से उदासीन, ज्ञान-ध्यान में समृद्धशाली, स्वपर कल्याणार्थी, शिवपद साधक, जगत्प्रसिद्ध बाह्याभ्यन्तर गुणों से परिपूर्ण, स्वात्म बल निधि, आत्मबल सबल, अन्य शरीरादि बलाबल से विरक्त, दिगम्बरत्व जैनत्व के संवर्द्धक, समस्त संघ से निवृत्त, इन्द्रिय विषय कषायों के विजेता, मोह क्षोभ रागद्वेष से अलिप्त, ऐसे साधुगण का अभिनन्दन है। आप त्रैकालिक त्रिभुवन में रहते हुए आनन्दमय स्वात्म सुख के रसिक रसास्वादी हैं। सम्यक् रत्नत्रय के आप प्राचार्य हैं। स्वानुभवी मार्गप्रदर्शक हैं । नाम धाम काम तो अनेक भवभ्रमण में हुए हैं, किन्तु चेतनत्व की ही ख्याति लाभ-पूजा भक्ति परमात्म पद की ही श्रेयस्कर श्रेष्ठ अनुपम अचल ध्रौव्य है। इसका ही मैं अभिनन्दन भक्ति पूजा करता हूं, जो कालिक सारस्वत महानिधि हैं । अच्छा हो यतिवर्य का इस ओर ध्यान आकर्षण सदा बना रहे। निर्ग्रन्थ दिगम्बरत्व जैनत्व के आप प्रतीक हैं । बाह्याभ्यंतर आडम्बर से विरक्तता ही आत्मोन्नति का साधन है । शुद्धात्मा चित् साधक है, शिवपद साध्य है । मेरी यही भावना है कि आपका अविनाशी कल्याण हो । ॐ शान्ति ३ सिद्धाय नमः ।
मेरे शिक्षा गुरु
मुनि श्री संभवसागर जी
श्री परम पूज्य, भारतगौरव, महाप्रतापी, शासनप्रभावक एवं शासनप्रसारक आचार्यरत्न विद्यागुरु १०८ प्रातःस्मरणीय विश्ववंदनीय, त्रैलोक्य पूज्य देशभूषण जी महाराज के चरणों में शतशत बन्दन ।
भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के दो वर्ष पूर्व देहली में मुझे आचार्यश्री के दर्शन का लाभ हुआ। आचार्यश्री के दर्शन करने पर मुझे ऐसी अद्भुत शान्ति मिली जिसका वर्णन करना मेरी लेखनी के बस की बात नहीं है। जैसे किसा पंथी को धूप में चलते-चलते वट-वृक्ष की छांव मिल गयी हो । उसी तरह मेरी आत्मा ने भी आचार्यश्री के दर्शन करके तृप्ति प्राप्त की।
आचार्यश्री अनेक गुणों के भंडार हैं, जिनमें से एक है शिष्य के प्रति वात्सल्य । जब मैं आचार्यश्री के दर्शन करने गया तो उनकी मधुर एवं स्नेहमयी वाणी से मेरी आत्मा निर्मल हो गयी। मैंने आचार्यश्री को गुरु बनाना चाहा ! वैसे मेरे दीक्षा गुरु आचार्यश्री १०८ धर्मसागर जी ही हैं। इसलिए मैंने आचार्यश्री को शिक्षा गुरु बनाने की इच्छा आचार्य जी के सामने प्रगट की। मेरी विनयपूर्वक इच्छा का आदर करते हुए आचार्यश्री ने गोम्मटसार ग्रन्थ का मार्मिक अध्ययन मुझसे करवाया। यह कृति आचार्यश्री के महान् शिष्य वात्सल्य एवं निरहंकारिता का उदाहरण है।
दुसरी विशेषता आचार्यश्री की शिष्य परम्परा है। आपके ही शिष्य श्री १०८ विद्यानन्दजी महाराज व आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती जी आज भारत भर में धर्म का प्रचार एवं प्रसार ऐसे ढंग से कर रहे हैं कि जैन और अजैन सभी आपकी वाणी के दास बने बैठे रहते हैं व ध्यानपूर्वक आपके प्रवचन का सुस्वाद करते हैं ।
अंत में शिक्षा गुरु १०८ श्री आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज को मेरा शत-शत त्रिकाल वन्दन। मैं आचार्यश्री के लिए जिनेन्द्र भगवान से यही प्रार्थना करता हूं कि आप दीर्घायु हों व इस संसार चक्र में डूबते हुए अनेक रत्नों को चुन-चुन कर शिष्य बनाते रहें व मोक्ष मार्ग में लगाते रहें
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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