________________
अतितुंगाकृतिया दोडागददरोल्सौन्दर्यमौन्नत्यमु नुतसौन्दर्यमुमागे मत्ततिशयंतानागदौन्नत्यमुं । नुतसौन्दर्यमुमूज्जितातिशयमुं तन्नल्लि निन्दिई वें क्षितिसम्पूज्यमो गोम्मटेश्वर जिनश्रीरूपमात्मोपमं ।
मरे, पारदु मेले पक्षिनिवहं कक्षद्वयोद्देशदोल मिरुगुत्तुं पोरपोण्मुगुं सुरभिकाश्मीरारुणच्छायमीतेरदाश्चर्यमनीत्रिलोकद जनं तानेय्दे कण्डिई दा
न्ने रेवन्नँट्टने गोम्मटेश्वरजिनश्री मूत्तियं कीत्तिसल् ।। अर्थात् 'जब मूर्ति बहुत बड़ी होती है तब उसमें सौन्दर्य प्रायः नहीं आता । यदि बड़ी भी हुई और सौन्दर्य भी हुआ तो उसमें दैवी प्रभाव का अभाव हो सकता है। पर यहां इन तीनों के मिश्रण से गोम्मटेश्वर की छटा अपूर्व हो गई है। कवि ने एक दैवी घटना का उल्लेख किया है कि एक समय सारे दिन भगवान की मूर्ति पर आकाश से 'नमेरु' पुष्पों की वर्षा हुई जिसे सभी ने देखा । कभी कोई पक्षी मूर्ति के ऊपर होकर नहीं उड़ता। भगवान् की भुजाओं के अधोभाग से नित्य सुगन्ध और केशर के समान रक्त ज्योति की आभा निकलती रहती है।
विगत एक सहस्राब्दी से भगवान् बाहुबली की अनुपम प्रतिमा जन-जन के लिए वन्दनीय रही है। दिग्विजयी सम्राटों, कुशल मन्त्रियों, शूरवीर सेनापतियों, मुसलमान राजाओं, अंग्रेज गवर्नर जनरल, देश-विदेश के कलाविदों एवं जनसाधारण ने इस मूर्ति में निहित सौन्दर्य की मुक्त कंठ से सराहना की है। कायोत्सर्ग मुद्रा में यह महान् मूर्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का सन्देश दे रही है । सुप्रसिद्ध कलाप्रेमी एवं चिन्तक श्री हेनरिक जिम्मर ने भगवान् गोम्मटेश की कलात्मक एवं आध्यात्मिक सम्पदा का निरूपण करते हुए लिखा है--
'आकृति एवं अंग-प्रत्यंग की संरचना की दृष्टि से यद्यपि यह प्रतिमा मानवीय है, तथापि अधर लटकती हिमशिला की भांति अमानवीय, मानवोत्तर है, और इस प्रकार जन्म-मरण रूप संसार से, दैहिक चिन्ताओं से, वैयक्तिक नियति, इच्छाओं, पीड़ाओं एवं घटनाओं से सफलतया असंपृक्त तथा पूर्णतया अन्तर्मुखी चेतना की निर्मल अभिव्यक्ति है। किसी अभौतिक अलौकिक पदार्थ से निर्मित ज्योतिस्तंभ की नाईं वह सर्वथा स्थिर, अचल और चरणों में नमित एवं सोत्साह पूजनोत्सव में लीन भक्त-समूह के प्रति सर्वथा निरपेक्ष पूर्णतया उदासीन खड्गासीन है।' (महाभिषेक स्मरणिका, पृ० १८५)
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की गौरवशाली परम्परा में राष्ट्रीय नेताओं एवं उदार धर्माचार्यों की प्रेरणा से भारतीय जन-मानस में प्राचीन भारत के गौरव के प्रति विशेष आकर्षण का भाव बन गया। स्वतन्त्र भारत में प्राचीन भारतीय विद्याओं के उन्नयन एवं संरक्षण के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं । भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री श्री जवाहर लाल नेहरू का भारतीय विद्याओं एवं इतिहास से जन्मजात रागात्मक सम्बन्ध रहा है। महान् कलाप्रेमी श्री नेहरू ने ७ सितम्बर १९५१ को अपनी एकमात्र लाडली सुपुत्री इन्दिरा गांधी के साथ भगवान् गोम्मटेश की प्रतिमा के दर्शन किए थे। भगवान् गोम्मटेश के लोकोत्तर छवि के दर्शन से वह भाव-विभोर हो गए और उन गौरवशाली क्षणों में उन्हें अपने तन-मन की सुध नहीं रही। आत्मविस्मृति की इस अद्भुत घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने मठ की पुस्तिका में लिखा है-I came, I saw and left enchanted ! (मैं यहां आया, मैंने दर्शन किए और विस्मय-विमुग्ध रह गया !)
वास्तव में भारतीय कलाकारों ने इस अद्वितीय प्रतिमा में इस देश के महान् आध्यात्मिक मूल्यों का कुशलता से समावेश कर दिया है। इसीलिए इस प्रतिमा की शरण में आए हए देश-विदेश के पर्यटक एवं तीर्थयात्री अपनी-अपनी भाषा एवं धर्म को विस्मरण कर विश्वबन्धुत्व के उपासक बन जाते हैं । भगवान् गोम्मटेश की इस अलौकिक प्रतिमा ने विगत दस शताब्दियों से भारतीय समाज विशेषतः कर्नाटक राज्य की संस्कृति को प्राणवान् बनाने में अपूर्व सहयोग दिया है। भगवान् बाहुबली के इस अपूर्व जिन बिम्ब के कारण ही श्रवणबेलगोल राष्ट्रीय तीर्थ बन गया है । इस महान् कलाकृति के अवदान से प्रेरित होकर श्री न० स० रामचन्द्रया ने विनीत भाव से लिखा है
'बाहुबली की विशाल हृदयता को ही इस बात का श्रेय है कि सभी देशों और अंचलों से, उत्तरोतर बढ़ती हुई संख्या में, यहां आने वाले तीर्थ-यात्री भाषा तथा धर्म के भेदभाव को भूल जाते हैं । न केवल जैनों ने, बल्कि शैवों और वैष्णवों ने भी, यहां मन्दिर बनवाये हैं और इस जैन तीर्थ-स्थान को अनेक प्रकार से अलंकृत किया है। गोम्मट ही इस आध्यात्मिक साम्राज्य के चक्रवर्ती सम्राट हैं। साहित्य एवं कला के साथ यहां धर्म का जो सम्मिश्रण हुआ है उसके पीछे इसी महामानव की प्रेरणा थी। कर्नाटक की संस्कृति में जो कुछ भी महान् है उस सबका
गोम्मटेश दिग्दर्शन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org