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________________ सूरि अपने विविधतीवंकल्प में इनको मथुरा तीर्थ की अधिष्ठात्री देवी मानते हैं तथा सिवाहिनी बताते है इनके हाथ में प्राय: आम्रफल एवं बालक विद्यमान रहते हैं। एलोरा की प्रसिद्ध गुफाओं में भी अम्बिका देवी की बहुत-सी मूर्तियां गढ़ी हुई हैं। अम्बिकाजी की विशाल मूर्ति आम्र वृक्ष के नीचे बैठी हुई दिखलाई गई है। श्री नेमिनाथ उनके मुकुट पर विराजमान हैं। सिंह भी विद्यमान है तथा आम्र के वृक्ष पर मयूर दृष्टिगत होता है। जैन आचार्यो एवं भक्तों ने समय-समय पर विभिन्न उद्देश्यों के लिए अम्बिका देवी की विजय प्राप्त करने के लिए कभी अपना सिद्धान्त स्थापित करने के लिए और समाज में सफलता के अम्बिका देवी की प्राचीन मूर्तियाँ नवमुनि गुफाओं, खण्डगिरि की गुफाओं एवं धाङ्क (काठियावाड़) में प्राप्त होती हैं। डॉ० सांकलिया के अनुसार इनका काल तीसरी या चौथी शताब्दी माना जा सकता है। सरस्वती और अम्बिका की इन प्राचीन मूर्तियों की विशेषता यह है कि ये दोनों देवियां स्वतन्त्र देवता के रूप में प्राप्त होती हैं। शासन देवता या गौण देवता के रूप में नहीं । इन दोनों देवियों की पूजा प्राचीन काल से चली आ रही है। इनका वाहन सिंह दिखलाया गया है। दसवीं शती की एक धातु मूर्ति अम्बिका देवी की प्राप्त हुई है। उनकी वायों भुजा में बच्चा है एवं दायों में... है। बारहवीं शताब्दी की एक विशाल मूर्ति मोरखाना से प्राप्त हुई है। इसमें देवी सिंहवाहिनी प्रतित हैं। प्रतिमानक्षण की दृष्टि से ये निश्चित रूप से जैनदेवी कही जा सकती हैं। मूर्तिकला का सुन्दर नमूना है। नरैना के मन्दिर में अम्बिका की तीन मूर्तियाँ सुरक्षित हैं । इनमें देवी सिंह पर बैठी हुई हैं। चौदहवीं शती की धातुमूति जयपुर में सुरक्षित है। देवी सिंह पर आरुढ है एवं शिशु उनकी गोद में है। तमिलनाडु के जैन मन्दिर में विशाल तथा मध्यभाग में स्थित देवी प्रतिमा है। सिर पर मुकुट और कानों में कुण्डल शोभित हैं। सिंह पर बैठी हुई हैं, दो भुजाएं हैं। एक हाथ से किसी बालिका का स्पर्श कर रही हैं तथा दूसरे में गुच्छा है। चारण पर्वत पर भी अम्बिका की मूर्ति मिली है। यह एक विशाल मूर्ति है, दो भुजाएँ, सिंह आदि सभी कुछ है । कहीं - २ इस देवी को नेमिनाथ की यक्षिणी भी बतलाया गया है। प्रारम्भिक काल में तमिलनाडु में इस देवी की काफी पूजा होती रही है। जैन चित्रकला में भी अम्बिका देवी के बहुत अच्छे चित्र उपलब्ध होते हैं। पद्मावती, ज्वालामालिनी आदि देवियों के २०० वर्ष पुराने सुन्दर चित्र जैन भाण्डागारों में सुरक्षित हैं । आराधना की है। कभी शास्त्रार्थ में लिए इनकी पूजा की जाती रही है। विमलशाह के प्रसिद्ध जैनमन्दिर में २० भुजाओं वाली अम्बिका देवी की मूर्ति भीतरी छत पर विद्यमान है। ललितासन में देवी सिंह पर आरूढ़ हैं। उनकी भुजाओं में खड्ग, शक्ति, सर्प, गदा, ढाल, परशु, कमण्डलु, अभयमुद्रा और वरदमुद्रा दीख रही हैं। शेष भुजानों के पदार्थ टूटे हुए होने के कारण पहचान में नहीं आते हैं। देवी ने सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल, गले में मोतियों की माला, कमर में करधनी, हाथों में कंगन, पैरों में नूपुर अधोवस्त्र (साड़ी) और दुपट्टा धारण किया हुआ है। ज्वालामालिनी देवी- यह यक्षिणी है और आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रम के साथ रहती है। इसकी पूजा दिगम्बर सम्प्रदाय में की जाती है। भैंस इसका वाहन है, आठ भुजाएँ हैं जिनमें आयुध हैं। इसके वर्णन के अनुसार यह ज्वालारूप है । दो हाथों में सर्प तथा आयुध होते हैं। कर्नाटक में एक जैन मन्दिर बेलगोला में चन्द्रप्रभ के साथ ज्वालामालिनी की प्रतिमा है । केवल दो भुजाएँ हैं एवं सिंह इनका आसन है । जैन देवसमुदाय में ज्वालामालिनी या महाज्वाला नाम की एक देवी हैं। यह देवी भी भैंसे पर बैठती हैं तथा इनकी आठों भुजाओं में आयुध होते हैं। पोत्तूर (तमिलनाडु) में एक जैन मन्दिर में इस देवी की मूर्ति है। देवी की आठ भुजाएँ हैं जिनमें से दाएँ हाथों में चक्र, अभयमुद्रा, गदा एवं शूल हैं और बायीं भुजाओं में शंख, ढाल, कपाल और पुस्तक विद्यमान हैं। मुखमण्डल ज्वालामय दिखलाया गया है । यह मूर्ति हिन्दुओं की महाकाली से काफी समानता रखती है। मद्रास में यह प्रचलित है कि जैनमुनि हेलाचार्य (नवम् शती) ने ज्वालामालिनी देवी की पूजा प्रचलित की थी। नीलगिरि पर्वत पर अग्नि देवी की स्थापना की गई है। इस देवी के मन्त्र और कल्प स्वतन्त्र रूप से लिखे गये हैं । इस देवी की पूजा प्रायः तान्त्रिक विधि से होती रही है और यह यक्षिणी पूजा का प्रारम्भ कराती है। नरसिंह पुर के मन्दिर में ज्वालामालिनी की प्रतिमा अष्टभुजा आयुधधारिणी मिलती है । इस देवी की कर्नाटक में पूजा अधिक प्रचलित है । सिहायिका देवी (पक्षिणी ) - तमिलनाडु में प्राप्त मूर्तियों में एक स्त्री देवता को युद्ध करते हुए दिखलाया गया है तथा वह सिंह पर आसीन है । उसके दो हाथों में धनुष बाण हैं और शेष दो में दूसरे आयुध हैं। देवी के सिंह ने शत्रु के हाथी को धराशायी किया हुआ है। यह सिद्धायिका नाम की यक्षिणी है जो महावीर जी की रक्षा में तत्पर रहती है । इनकी एक मूर्ति अन्नामलाई स्थान से भी प्राप्त हुई है। पद्मावती देवी — इस देवी की पूजा प्राचीन काल से कर्नाटक में होती आ रही है। नवीं दसवीं शताब्दी ई० के उत्तरवर्ती शिलालेखों एवं प्रतिमाओं से इस तथ्य की प्रामाणिक पुष्टि होती है। यद्यपि यह पार्श्वनाथ की यक्षिणी है फिर भी स्वतन्त्र रूप से भी इस जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only १५५ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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