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________________ ___ इन देवियों की मूर्ति का निर्माण करते हुए कलाकार देवी के वर्ग का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे । अर्थात् शासनदेवी, विद्यादेवी या यक्षिणी के लक्षण या चिह्नों का स्पष्ट एवं सूक्ष्मतर विवेचन प्रस्तुत किया जाता था। मूर्तियाँ मथुराकाल से लेकर आजतक उपलब्ध होती रही हैं। मूर्तिकला को जीवित रखने का सतत प्रयास कलाकारों ने किया है। इनमें से बहुत-सी देवियाँ तो हिन्दू देवियों के समान ही हैं और कुछ देवियों ने जैनधर्म की स्पष्ट छाप रखते हुए भी हिन्दू देवियों के नाम, रूप और आयुध आदि धारण किये हैं । बहुतसी मूर्तियाँ मूर्तिकला की दृष्टि से भव्यतम कलाकृतियाँ हैं। जैन मतानुयायी तीर्थङ्करों के साथ ही साथ अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा करते हैं। इनमें प्रमुख हैं—सरस्वती, अम्बिका और पद्मावती । इसी नाम की हिन्दू देवियों से भिन्नता दिखलाने के लिए इनको विभिन्न तीर्थङ्करों के साथ-साथ सम्बद्ध कर दिया गया है। देवी के मुकुट पर उसी तीर्थङ्कर की प्रतिमा होती है जिसके साथ वह सम्बद्ध होती है। इन मूर्तियों के निर्माण में शास्त्रीय विधियों का पालन करते हुए भी कलात्मकता का पूर्ण ध्यान रखा गया है। ये मूर्तियाँ उच्च भावात्मक कला, भंगिमा एवं अभिव्यक्ति का उदाहरण हैं । कुछ देवियाँ केवल मान्त्रिक देवियाँ हैं । सरस्वती- सरस्वती देवी की मूर्तियाँ तीन प्रकार की उपलब्ध होती हैं-दो भुजावाली देवी, चतुर्भुजी देवी एवं चार से अधिक भुजाओं से युक्त । मुख्य रूप से सरस्वती देवी के हाथ में पुस्तक होती है एवं हंस को उसका वाहन दिखलाया गया है । एक बहुत ही सुन्दर सरस्वती की मूर्ति सिरोही स्टेट राजस्थान के एक जैन मन्दिर से प्राप्त हुई है। इसका समय लगभग आठवीं शताब्दी माना जाता है। इसमें सरस्वती देवी पद्मासन पर स्थित है तथा उसके दोनों हाथों में कमल सुशोभित हो रहे हैं।' राजपूताना संग्रहालय में एक पत्थर की सरस्वती मूर्ति बहुत ही सुन्दर है जो बाँसवाड़ा राज्य से प्राप्त की गई है। देवी की चार भुजाएँ हैं । बायीं भुजाओं में पुस्तक एवं वीणा है तथा दायीं भुजाओं में माला एवं कमल सुशोभित हैं। मुकुट में एक छोटे आकार की शिवमूर्ति जड़ी हुई है । एक छोटी संगमरमर की सरस्वती मूर्ति अचलगढ़ से प्राप्त हुई है। इसमें चार भुजाओं वाली देवी के ऊपर के दोनों हाथों में वीणा और पुस्तक है तथा निचले हाथों में माला व कमण्डलु हैं । देवी इसमें मयूरवाहन हैं।' इसी प्रकार सरस्वती की एक बहुत ही सुन्दर प्रतिमा बीकानेर से प्राप्त हुई है जिसे मध्यकालीन मूर्तिकला का भव्यतम उदाहरण कहा जा सकता है। यह सफेद संगमरमर पर बनी है एवं सौम्यस्वरूपा है । देवी की चार भुजाएँ हैं । इनकी ऊपर वाली भुजाओं में कमल एवं पुस्तक है और निचली भुजाओं में कमण्डलु और मुद्रा । देवी खड़ी हुई हैं। सरस्वती देवी की बहुत ही सुन्दर प्रतिमाएँ आबू के जैन मन्दिर में भी प्राप्त होती हैं । चार भुजाओं वाली देवी के हाथों में वीणा, पुस्तक, माला और कमल अंकित हैं । इसी मन्दिर (विमल वसही) में सरस्वती की सोलह भुजा वाली प्रतिमा भीतरी छत पर अंकित की गई है । यह विद्या की देवी हैं, भद्रासन में स्थिर हैं, दोनों तरफ नृत्य करते हुए परिचारक खड़े हैं। आठ भुजाओं के विषय दृष्टिगोचर होते हैं-शेष पहचान में नहीं आते हैं । सिंहासन में हंस की प्रतिमा दिखाई दे रही है । इसी प्रकार तेजपाल द्वारा निर्मित मन्दिर में सरस्वती की सुन्दर प्रतिमा विद्यमान है। भद्रासन पर बैठी हुई देवी के हाथों में पुस्तक के स्थान पर कमण्डलु प्रदर्शित किया गया है। मथुरा से प्राप्त जैनस्तूप में सरस्वती और अम्बिका की प्रतिमाएं मिली हैं। सरस्वती की मूर्ति का शिर विद्यमान नहीं है। बहुत ही कलात्मक वस्त्र पहने हुए हैं। दोनों तरफ एक-एक परिचारिका विद्यमान है। इससे यह ज्ञात होता है कि बड़े प्राचीन काल से जैनधर्म में सरस्वती की पूजा होती रही है। वैसे भी विद्यादेवियों की पूजा जैनधर्म की अपनी विशेषता है । १६ विद्यादेवियाँ या श्रुतदेवियाँ केवल जैन देव-परिवार में ही प्राप्त होती हैं।' सरस्वती वीणापुस्तकधारिणी तथा हंसवाहना है । यह हिन्दू सरस्वती देवी के समान ही है। केवल जिन मूर्ति मुकुट में होने पर जैन देवी है ऐसा प्रकट होता है। अम्बिका देवी-इस देवी की पूजा बड़े प्राचीन काल से जैन लोग करते रहे हैं। यह देवी जैन आम्नाय की देवी स्वीकार की गयी है, जिस प्रकार बौद्धों की तारादेवी हैं । यद्यपि २२वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ के साथ इन्हें सम्बद्ध माना जाता है किन्तु सभी तीर्थंकरों के साथ इनकी प्रतिमाएँ उपलब्ध होती हैं। मथुरा में इनकी सबसे प्राचीन मूर्ति प्राप्त हुई है। यह मूर्ति लाल पत्थर की है। श्री जिनप्रभ 1. Progress report of archaeological survey, West region -1905-1906, page 48 2. Jainism in Rajasthan : K.C. Jain, p.123 3. श्रुतदेवतां शुक्लवर्णां हंसवाहनां चतुर्भुजां वरदकमलान्वितदक्षिणकरां पुस्तकाक्षमालान्वितवामकरां चेति । पुस्तकाक्षमालिकाहस्ता वीणाहस्ता सरस्वती। १५४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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