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________________ पुननिर्मित करवाया गया था ।' मन्दिर के स्थापत्य के आधार पर डॉ० के०सी० जैन ने इसे आठवीं शताब्दी में निर्मित माना है । परवर्ती काल में जिन्दक नामक एक व्यापारी ने इस मन्दिर का जोर्णोद्धार करवाया था । ११०० ई० के दो अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण भाविका पाल्हिया की पुत्री तथा देवचन्द्र की पुत्रवधू और यशोधर की पत्नी ने अपना भवन महावीर मन्दिर के रथ को रखने हेतु दान दिया था।' इस लेख की पुष्टि कक्क सूरी के "नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रबन्ध" नामक ग्रन्थ से भी होती है। इसके अनुसार महावीर के एक स्वर्णरथ का नाम "नर्दम" था जो वर्ष में एक बार नगर परिक्रमा के लिए उपयोग में लाया जाता था ।" इससे संकेतित है कि प्राचीन काल में ओसिया में महावीर प्रतिमा का एक जलूस भी निकाला जाता था । महावीर मन्दिर का स्थापत्य' ओसिया का प्रमुख जैन मन्दिर महावीर का मन्दिर है । इस मन्दिर का मुख उत्तर की ओर है। इस मन्दिर की सम्पूर्ण निमिति में प्रदक्षिणा पथ के साथ गर्भगृह, पार्श्वभित्तियों के साथ गूढमण्डप तथा सीढ़ियां चढ़कर पहुंच जाने योग्य मुखचतुष्की सम्मिलित है । द्वार मण्डप से कुछ दूरी पर एक तोरण है जिसका निर्माण एक शिलालेख के अनुसार १०१० ई० में किया गया था, किन्तु इससे भी पूर्व ६५६ ई० में द्वार - मण्डप के सामने समकेन्द्रित वालाणक ( आच्छादित सोपानयुक्त प्रवेश द्वार ) का निर्माण कराया गया था । गर्भगृह के दोनों ओर एक आच्छादित वीषि निर्मित है। मुख मण्डप तथा तोरण के मध्य रिक्त स्थान के दोनों पावों में युगल देवकुलिकाएं बाद में निर्मित की गई हैं। गर्भगृह एक वर्गाकार कक्ष है जिसमें तीन अंगों अर्थात् भद्र, प्रतिरथ और कर्ण का समावेश किया गया है । उठान में पीठ के अन्तर्गत एक विशाल भित्ति, विस्तृत अन्तरपत्र और चेत्य तोरणों द्वारा अलंकृत कपोत सम्मिलित हैं। कपोत के ऊपर बेलबूटों सेअलंकृत बसंत पट्टिका चौकी के समानान्तर स्थित पीठ के ऊपर सामान्य रूप से पाये जाने वाले वेदी बंध स्थित हैं । बेदी बंध के कुंभदेवकुलिकाओं द्वारा अलंकृत हैं, जिनमें कुबेर, गज -लक्ष्मी तथा वायु आदि देवताओं की आकृतियाँ बनाई गई हैं। इस प्रकार का अलंकरण गुप्तकालीन मन्दिरों में ढूंढा जा सकता है बेदी बंध के अलंकरणयुक्त कपोतों के ऊपर उद्द्यमों से आवेष्ठित देवकुलिकाओं में दिग्पालों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। जंघा की परिणति पद्म वल्लरियों की शिल्पाकृति के रूप में होती है और वरण्डिका को आधार प्रदान करती हैं । वरण्डिका द्वारा छाद्य से आवेष्ठित दो कपोतों के बीच अंतराल की रचना होती है। गर्भ गृह भद्रों को उच्च कोटि के कलात्मक झरोखों से युक्त उन गवाक्षों से संबद्ध किया गया है जो राजसेनक वेदिका तथा आसनपट्ट पर स्थित हैं । इन गवाक्षों को ऐसे चौकोर तथा मनोहारी युगल भित्ति-स्तम्भों द्वारा विभाजित किया गया है जो कमल-पुष्पों, घट- पल्लवों, कीर्तिमुखों तथा लतागुल्मों के अंकन द्वारा सुरुचिपूर्वक अलंकृत किये गये हैं और उनके ऊपर तरंग टोडो की निर्मिति हैं । छज्जों से युक्त गवाक्षों के झरोखों के विविध मनोहर रूप प्रदर्शित हैं। गर्भगृह के ऊपर निर्मित शिखर मौलिक नहीं है। यह ग्यारहवीं शताब्दी की मारू गुर्जर शैली की एक परवर्ती रचना है। विकसित कणों को दर्शाने वाले उरः श्रृंगों तथा लघु श्रृंगों की तीन पंक्तियाँ इसकी विशेषताएं हैं। गूढ़ मण्डप की रूपरेखा में केवल दो तत्त्व सम्मिलित हैं अर्थात् भद्र और कर्ण । वरण्डिका तक गर्भगृह के गोटे तथा अन्य अलंकरण इसके अन्तर्गत आते हैं। इसकी जंघा के अग्रभाग का अलंकरण यक्षों, यक्षियों और विद्या देवियों की प्रतिमाओं द्वारा किया गया है । सामने के कर्ण में बांयी ओर सरस्वती और पार्श्वयक्ष तथा दांयी ओर अच्छुप्ता और अप्रतिचका की प्रतिमाएं स्थित हैं । गूढ मण्डप की छत तीन पंक्तियों की फानसना है, जिसका सौन्दर्य अद्भुत है । प्रथम पंक्ति स्वकण्ठ से प्रारम्भ होती है और वह विद्याधर और गन्धर्वों की नृत्य करती हुई आकृतियों से अलंकृत है, जिनके पश्चात् छाद्य तथा शतरंजी रूप उत्कीर्ण आते हैं । - प्रथम पंक्ति के चार कोने भव्य श्रृंगों से मण्डित हैं । भद्रों से रथिका प्रक्षिप्त होती है जिस पर पश्चिम दिशा में कुबेर तथा पूर्व में एक अपरिचित यक्ष की आकृति सम्मिलित है । दूसरी पंक्ति के चार कोनों को सुन्दर कर्णकूटों द्वारा अलंकृत किया गया है और उसके शीर्ष भाग में सुन्दर आकृति के घण्टा कलश का निर्माण किया गया है । त्रिक मण्डप का शिखर गूढ़ मण्डप के सदृश फानसना प्रकार की दो पंक्तियों वाला है। इसके ऊपर चारों ओर सिंह कर्ण १. २. ३. ४. ५. ६. १४४ वही । जैन के०सी० पूर्वोक्त, पृष्ठ १०२ आक्यॉलोजिकल सर्वे आंब इण्डिया एन्युअल रिपोर्ट, १६००-६ पृष्ठ १०९ जैन के०सी०, पूर्वोक्त पृष्ठ १८३-१८४ पर उधृत वही । यह सम्पूर्ण सामग्री " जैन कला एवं स्थापत्य " खण्ड प्रथम (भारतीय ज्ञान पीठ, नई दिल्ली १९७५) के श्री कृष्ण देव के लेख से ज्यों की त्यों की गई है । इसके लिए हम विद्वान् लेखक तथा भारतीय ज्ञानपीठ के अत्यन्त आभारी हैं । आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी Jain Education International For Private & Personal Use Only महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ : www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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