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________________ के तीन फलक है। उत्तर की ओर के सिंह कर्ण पर महाविद्याओं, गौरी बरोट्या तथा मानसी की आकृतियां हैं। पश्चिमी फानसना के उत्तर की ओर यक्षी-चक्रेश्वरी, महाविद्या, महाकाली तथा वाक्देवी की आकृतियां दर्शायी गई हैं । पश्चिम की ओर पार्श्व में यक्षीमूर्तियों के मध्य महाविद्या मानवी को आकृति है । द्वार मण्डप की दो पंक्तियों वाली फानसना छत घण्टा द्वारा अवेष्ठित है। इसके त्रिभुजाकार तोरणों की तीन फलकों में प्रत्येक पर देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उत्कार्ण की गई हैं । पूर्व की ओर महाविद्या काली और महामानसी और वरुणयक्ष की प्रतिमाएं हैं । पश्चिम की ओर देवियों द्वारा संपावित महाविद्या रोहिणी की मूर्ति है। उत्तर की ओर यक्ष सर्वानुभूति, आदिनाथ तथा अम्बिका की प्रतिमाएं हैं। गर्भ गृह की भीतरी रचना साधारण है किन्तु उसमें तीन देवकुलिकाएं निर्मित हैं जो अब रिक्त हैं। गर्भगृह के द्वार के कलात्म: विवरण हाल में किये गये रंग-लेप और शीशे की जड़ाई के कारण छिप गये हैं। शाला के चारों स्तम्भ मूलरूप से चौकोर हैं और उन्हें घट पल्लवों-(बेलबूटों) नागपाश और विशाल कीर्तिमुखों द्वारा अलंकृत किया गया है। शाला के ऊपर की छत नाभिच्छेद शैली में निर्मित है। इसकी रचना सादे गजतालुओं द्वारा होती है। गूढ़ मण्डप की भित्तियों पर पर्याप्त गहराई की दस देवकुलिकाएं हैं। उनमें से दो कुबेर और वायु की आकृतियां हैं। गूढ़ मण्डप को प्रत्येक क्रमावास्थित प्रदक्षिणा शैली में निर्मित इन देवताओं की प्रतिमायें रोहिणी, बेरोट्या, महामानसी और निर्वाणी का प्रतिनिधित्व करती हैं । प्रत्येक भद्र के सरदल के ऊपर स्थित फलक पर अनुचरों के साथ पार्श्वनाथ की दो प्रतिमाओं को दर्शाया गया है। ऐसा विश्वास करने के लिए अनेक कारण हैं कि आठवीं शताब्दी में वत्सराज द्वारा निर्मित मूल मन्दिर के अभिन्न अंग के रूप में वलाणक विद्यमान था और 956 ई० में स्तम्भ युक्त कक्ष के अतिरिक्त निर्माण के साथ इसका नवीनीकरण कराया गया था। मूल महावीर मन्दिर प्रारम्भिक राजस्थानी वास्तुकला का एक मनोरम नमूना है। इसमें महान् कला गुण सम्पन्न मण्डप के ऊपर फानसना छत तथा जैन वास्तुकला के सहज लक्षणों से युक्त त्रिक मण्डप की प्राचीनतम शैली का उपयोग किया गया है। मुख्य मन्दिर और उसकी देवकूलिकाएं प्रारम्भिक जैन स्थापत्य और मूर्तिकला के समृद्ध भण्डर हैं और देवकुलिकाएँ तो वास्तव में स्थापत्य कला के लघु रत्न ही हैं । निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि 'ओसिया' भारत का एक महान् जैन तीर्थ स्थान है । प्राचीन काल से ही यह स्थल एक प्रमुख तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध रहा है । विद्वान् पाठकों का ध्यान इस लेख के माध्यम से निम्न बिन्दुओं की ओर आकर्षित किया जा सकता है-प्रथम, ओसिया के मन्दिर की जब रत्नप्रभ सूरी ने स्थापना की, उस समय यह बहुत ही साधारण मन्दिर रहा होगा । द्वितीय, मन्दिर में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट है कि इसका कौन-सा खण्ड कब बना और कब विद्यमान था और किसने बनवाया था। लेकिन मख्य बात यह है कि मन्दिर का शिखर मारु-गुर्जर शैली का और लगभग ११वीं शताब्दी का है । अतः स्पष्ट है कि मन्दिर का शिखर बाद में जोड़ा गया था। हम जानते हैं कि बिना शिखर के मन्दिर प्रारम्भिक गुप्तकाल में बनते थे। इसलिए मन्दिर-निर्माण की तिथि गप्तकाल के प्रारम्भ में रखी जा सकती है । लेकिन मन्दिर में जो अंकन और कलात्मक प्रतीक उपलब्ध हैं, उनसे यह संकेतित है कि इसने कलात्मक स्वरूप गुप्तोत्तर काल में धारण किया था, परन्तु इसने अपना वर्तमान स्वरूप ग्यारहवीं शताब्दी में धारण किया था। ग्यारहवीं शताब्दी के बाद तो ओसियां की ख्याति एक प्रमुख तीर्थ के रूप में दूर-दूर तक फैलने लगी थी। बारहवीं शती में प्रसिद्ध विद्वान् सिद्धसेन ने अपने ग्रन्थ (सकलतीर्थ स्तोत्र) में ओसिया को प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में उद्धृत किया है।' श्वेताम्बरों का उपकेशगच्छ भी ओसिया से सम्बन्धित रहा है। इस गच्छ का उल्लेख 1202 ई० के लेखों में मिलता है। सिरोही (राजस्थान) साल के अजारी ग्राम से प्राप्त 1137 ई० के शिलालेख में इस गच्छ का नाम मिलता है।' ओसिया का उपकेशगच्छ तेरहवीं से सोलहवीं शती के मध्य जैसलमेर, उदयपुर तथा सिरोही में प्रसिद्ध था।' ओसिया के अधिकांश वैष्णव मन्दिर मोहम्मद गौरी के आक्रमण के समय नष्ट कर दिए गए थे। लेकिन यह हमारा सौभाग्य है कि यहां का सच्चियाय माता तथा महावीर मन्दिर आज भी पूर्णतया सुरक्षित हैं। भारत के प्रत्येक नागरिक हेतु ओसिया मन्दिर स्थापत्य एवं धार्मिक दृष्टि से वास्तव में अवलोकन के योग्य है। १. गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज, ७६, पृष्ठ १५६, जैन के०सी० द्वारा पूर्वोक्त पृ० १८४ पर उपधृत । उपकेशगच्छ प्रबन्ध, लहर २, संख्या ८, पृ० १४ शर्मा दशरथ पूर्वोक्त पृ० ४२२, नाहर पूर्वोक्त १ पृष्ठ ७६१ ३. जिन विजय, मुदि, अर्बुदाचल प्रदाक्षिणा जैन लेख, सम्बोध, संख्या ४०४, भावनगर, वि० सं० २००५ वही, नाहर पूर्णचन्द, पूर्वो, खण्ड २, ३ ५. जैन के०सी०, पूर्वोक्त, पृ० १८४ जैन इतिहास, कला और संस्कृति १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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